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________________ ब्रह्महेमचंद्रविरचित मुणिपुंगवो सुभो पुणु जसभद्दो तहेव जसवाहो । लोहो णाम अलोहो पढमंगधरावि चत्तारि ||76ll अर्थ :- प्रथम समुद्र, फिर यशोभद्र, यशोबाहु और चतुर्थ लोहार्य ये चार आचार्य प्रथम अंग आचारंग के धारक हुए | पश्चात् सम्पूर्ण आचारांग को धारण करने वालों का अभाव हो गया । विणययरो सिरिदत्तो सिवदत्तो अवुहदत्त मुणिवसहा । अंगं पुव्वं मज्झे देसधरा चारि जाणेह ॥77॥ अर्थ :- लोहार्य के पश्चात् विनयधर, श्री दत्त, शिवदत्त और अर्हदत्त ये चार आचार्य अंगों और पूर्वी के एक देश ज्ञाता हुए। अट्ठदसं अहियाणं वाससयं तहय कालवोलीणो । अवसप्पइ सुदपवरा अंगधरा भरहे वुच्छिण्णा ॥78|| वर्ष 118 अर्थ :- एक सौ अठारह वर्ष व्यतीत हो जाने के पश्चात् श्रुत प्रवर अंगधरों की परम्परा भरत क्षेत्र से व्युच्छिन्न हो गई । गुत्तिमयं लेसाणं वासाणं परगलियमित्तमादी य । देसूणय देसधरा मुणिअरुहाभणियणामा य ||79|| अर्थ :- वीर निर्वाण के पश्चात् (62 + 100 + 181 + 220 + [[39] Jain Education International वर्ष 683 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002703
Book TitleShruta Skandha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramha Hemchandra, Vinod Jain, Anil Jain
PublisherGangwal Dharmik Trust Raipur
Publication Year2002
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, canon, & Agam
File Size3 MB
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