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ब्रह्महेमचंद्रविरचित
कल्पवासी और वैमानिक सम्बंधी इन्द्र और सामानिक आदि में उत्पत्ति के कारणभूत दान, पूजा, शील, तप, उपवास, सम्यक्त्व, संयम और अकामनिर्जरा का तथा उनके उपपाद स्थान और भवनों का वर्णन करता है। अथवा छह कालों से विशेषित देव असुर और नारकियों में तिर्यंच व मनुष्यों की उत्पत्ति की प्ररूपणा करता है। इस काल में तिर्यंच और मनुष्य इन कल्पों व इन पृथिवियों में उत्पन्न होते हैं इसकी यह प्ररूपणा करता है ।
महापुण्डरीक प्रकीर्णक - महापुण्डरीक प्रकीर्णक काल का आश्रय कर देवेन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव व वासुदेवों में उत्पत्ति का वर्णन करता है। अथवा समस्त इन्द्र और प्रतीन्द्रों में उत्पत्ति के कारणरूप तपोविशेष आदि आचरण का वर्णन करता है । अथवा देवों की देवियों में उत्पत्ति के कारणभूत तप, उपवास आदि का प्ररूपण यह प्रकीर्णक करता है ।
निषिद्धिका प्रकीर्णक प्रमाद जन्य दोषों के निराकरण करने को निषिद्धि कहते हैं और इस निषिद्धि अर्थात् बहुत प्रकार के प्रायश्चित के प्रतिपादन करने वाले प्रकीर्णक को निषिद्धिका कहते हैं । अथवा काल का आश्रय कर प्रायश्चित विधि और अन्य आचरण विधि की प्ररूपणा करता है ।
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देसावहिछन्भेयं परमावहिसव्वअवहिचरिमतणुं । मणपज्जवसंजमिणं घादिखए केवलं होदि ||63||
अर्थ :- देशावधि ज्ञान के छह भेद है। परमावधि और सर्वावधि ज्ञान चरम शरीरियों को होता है । मन:पर्यय ज्ञान सकल संयमी को प्रकट
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