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________________ ब्रह्महेमचंद्रविरचित होता है तथा घातियाँ कर्मों के क्षय से केवलज्ञान होता है । विशेषार्थ कृष्णपक्ष के चन्द्र मण्डल के समान जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर वृद्धि और अवस्थान बिना निःशेष विनष्ट होने तक घटता ही जाता है वह हीयमान अवधिज्ञान है । जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर शुक्ल पक्ष के चन्द्र मण्डल के समान, प्रतिसमय अवस्थान के बिना जब तक अपने उत्कृष्ट विकल्प को प्राप्त होकर अगले समय में केवलज्ञान को उत्पन्न कर विनष्ट नहीं हो जाता तब तक बढ़ता ही रहता है वह वर्धमान अवधिज्ञान है । जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर कदाचित बढ़ता है कदाचित घटता है और कदाचित अवस्थित रहता है, वह अनवस्थित अवधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर वृद्धि हानि बिना दिनकरमण्डल के समान केवलज्ञान के उत्पन्न होने तक अवस्थित रहता है। वह अवस्थित अवधिज्ञान है । जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर जीव के साथ जाता है वह अनुगामी अवधिज्ञान है । जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर जीव के साथ नहीं जाता है वह अननुगामी अवधिज्ञान है । - दुसमसुसमावसाणो दुसमपएसेवि कालपरिमाणे । सुदकेवलिपरिवाडी आयण्णहु पयदचित्तेण ||6411 अर्थ :दुषमा- सुषमा काल के अर्थात् चतुर्थ काल के समाप्त होने पर दुषमा नामक पंचमकाल के प्रवेश होने पर श्रुतकेवलियों की परम्परा को सावधान होकर सुनो। वासच उक्कं हि आहुट्टमासही तुरियकालंते । कत्तियकिसण चउद्दसि वीरजिणो सिद्धिसंपत्तो |165|| Jain Education International For Private & Personal Use Only [[35] www.jainelibrary.org
SR No.002703
Book TitleShruta Skandha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramha Hemchandra, Vinod Jain, Anil Jain
PublisherGangwal Dharmik Trust Raipur
Publication Year2002
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, canon, & Agam
File Size3 MB
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