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________________ ब्रह्महेमचंद्रविरचित लोयग्गसारभूयं सिद्धिसुहुप्पायणे समत्थोयं । पंचघणं छहसुण्णं पणयव्वो लोयसारोयं ॥51| 125000000 अर्थ :- जो श्रुत ज्ञान बारह करोड़ पचास लाख पदों के द्वारा लोक के सारभूत मोक्ष सुख और उनके उपायों का मुख्य रूप से वर्णन करता है। उसे लोक बिन्दुसार जानना चाहिए। विशेषार्थ - जिसमें आठ प्रकार के व्यवहारों, चार बीजों और क्रियाविभाग का उपदेश किया गया हो वह लोकबिन्दुसार है। अट्ठुत्तरुसयकोडी अडीलक्खसहसछप्पण्णा। पंचप्पयअहियाणं वारसमो दिद्विवादोयं ॥52|| __ 1086856005 अर्थ :- जो श्रुत ज्ञान एक अरब आठ करोड़ अड़सठ लाख छप्पन हजार पाँच पद रूप है वह सम्पूर्ण दृष्टिवाद अंग है। पणअहियं सुण्णदुगं अडपणतयअडदुएयएयं च। वारसअंगाइसुदं णमियं महहेमयंदेण ॥5॥ 1128358005 अर्थ :- द्वादशांग रूप अंग श्रुत का प्रमाण एक सौ बारह करोड़ तेरासी लाख अट्ठावन हजार पाँच पद प्रमाण है। उस श्रुत को मैं हेमचंद्र प्रणाम करता हूँ। =[26] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002703
Book TitleShruta Skandha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramha Hemchandra, Vinod Jain, Anil Jain
PublisherGangwal Dharmik Trust Raipur
Publication Year2002
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, canon, & Agam
File Size3 MB
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