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________________ ब्रह्महेमचंद्रविरचित तयदसकोडी य पयं पाणापण्णाणुवेदमंतो य। गारुडविजा भासइ पाणावायं णमंसामि ॥49।। 130000000 अर्थ :- जो श्रुत ज्ञान तेरह करोड़ पदों के द्वारा उच्छ्वास नि:श्वास प्राणों की वृद्धि एवं हानि का तथा विष चिकित्सा का वर्णन करता है, उसे प्राणावाय पूर्व कहते हैं। विशेषार्थ - जिसमें शरीर चिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद, भूतिकर्म अर्थात् भस्मलेपनादि, जांगुलिप्रक्रम अर्थात् विषचिकित्सा और प्राण व अपान वायुओं का विभाग, इनका विस्तार से वर्णन किया गया हो वह प्राणावाय पूर्व है। प्राणावाय पूर्व उच्छ्वास आयुप्राण, इन्द्रियप्राण और पराक्रम अर्थात् बलप्राण इन प्राणों की वृद्धि एवं हानि का वर्णन करता है। णवकोडिपयपमाणं छंदोलंकारसकलविण्णाणं । भासइ अण्णेकविहं किरियविसालं णमंसामि ||50॥ 90000000 अर्थ :- जो श्रुत ज्ञान नौ करोड़ पदों के द्वारा छन्द, अलंकार आदि सम्पूर्ण विज्ञान को अनेक प्रकार से कहता है उस क्रियाविशाल पूर्व को मैं नमस्कार करता हूँ। विशेषार्थ - जिसमें लेखन आदि बहत्तर कलाओं का स्त्री संबंधी चौंसठ गुणों का, शिल्पों का, काव्य संबंधी गुण दोषक्रिया का, छन्द रचने की क्रिया और उसके फल के उपभोक्ताओं का वर्णन किया गया हो वह क्रियाविशालपूर्व कहलाता है। -[25] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002703
Book TitleShruta Skandha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramha Hemchandra, Vinod Jain, Anil Jain
PublisherGangwal Dharmik Trust Raipur
Publication Year2002
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, canon, & Agam
File Size3 MB
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