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रूपक अलंकार - रूपक अलंकार में उपमेय पर उपमान का आरोप कर दिया जाता है अर्थात् उपमेय को ही उपमान बता दिया जाता है ।
उदाहरण
णामेण दिवद्ध सुत्तेउ, दुण्णय पण्णय गण- वेणतेउ ।
- वड्ढमाणचरिउ 1.5.1 अर्थ - उस तेजस्वी राजा का नाम नंदिवर्द्धन था जो दुर्नीतिरूपी पन्नगों के लिए गरुड़ ही था ।
व्याख्या - उपर्युक्त पद्यांश में दुर्नीति पर पन्नगों का आरोप किया गया है अतः रूपक अलंकार है ।
उत्प्रेक्षा अलंकार - जहाँ उपमेय में उपमान की सम्भावना अर्थात् उत्कृष्ट कल्पना का वर्णन हो वहां पर उत्प्रेक्षा अलंकार होता है । अपभ्रंश में इव णं, णावर आदि वाचक शब्दों का प्रयोग होता है ।
उदाहरण
तो सोहइ उग्गमिउ णहे ससिद्धउ विमलपहालउ । णावइ लोयहं दरिसियउ णहसिरिए फलिहकच्चोलउ ।
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- सुदंसरणचरिउ 8.17 घत्ता
अर्थ
- उस समय प्राकाश में अपनी विमलप्रभा से युक्त अर्द्धचन्द्र उदित होकर ऐसा शोभायमान हुआ मानो नभश्री ने लोगों को अपना स्फटिक कटोरा दिखलाया हो ।
व्याख्या - उपर्युक्त पद्यांश में अर्द्धचन्द्र में 'स्फटिक कटोरे' की सम्भावना के कारण व 'गावइ' वाचक शब्द के कारण उत्प्रेक्षा अलंकार है ।
विभावना अलंकार - जहां कारण के अस्तित्व के बिना कार्य की सिद्धि हो वहां विभावना अलंकार होता है ।
उदाहरण
विणु चावें विणु विरइय थाणें, विणु गुणेहिं विणु सर-संधाणें । विणु पहरणेहिं तो वि जज्जरियड, ण गराइ कि पि पुणब्वसु जरियउ ।
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ ]
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- पउमचरिउ 68.8.7-8
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