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तत ऊर्द्ध त एवानिवृत्तिप्रकृतिः लोभरहितः सप्तदशप्रमाणाः सूक्ष्मसापरायगुणस्थाने सूक्ष्मसापरायो बध्नाति। .. तत ऊर्द्ध सातवेदनीयख्यामेकां प्रकृति उपशांतकषाय क्षीण - कषायः सयोगिकेवलिनो बध्नाति। अयोगकेवली अबंधको विज्ञेयः।
__ इसके ऊपर अनिवृत्तिकरण की उक्त प्रकृतियों में से लोभ रहित 17 प्रकृतियों का सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में सूक्ष्मसाम्पराय वाला जीव बन्ध करता है।
इसके ऊपर उपशांत कषाय-क्षीणकषाय-सयोगकेवलीजिन एक साता वेदनीय का बंध करते हैं। अयोग केवली को अबंधक जानना चाहिए। विशेष टिप्पण- यहां जो ग्रन्थकार ने गुणस्थानों में अबंधक प्रकृतियों का कथन किया है वह पूर्व के गुणस्थान में व्युच्छित्ति को प्राप्त हुई प्रकृतियों मात्र का किया है। जैसे पंचम गुणस्थान में अबंधक प्रकृतियाँ दश कही गई हैं। ये दस प्रकृतियां चतुर्थ गुणस्थान में व्युच्छित्ति को प्राप्त हुई प्रकृतियां हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं समझना चाहिए कि पंचम गुणस्थानवी जीव मात्र दस प्रकृतियों का ही अबंधक है। किन्तु प्रथम आदि गुणस्थानो में व्युच्छित्ति को प्राप्त प्रकृतियों का भी अबंधक है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। इसी प्रकार आगे के गुणस्थानों में भी ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा ग्रन्थकार की व्यवस्था नहीं बन सकेगी। विशेष जानकारी के लिए बंध-अबंध-बंध व्युच्छित्ति वाली अग्रिम संदृष्टि देखें। प्रकृतियों का गुणस्थान में बंध अबंध का कथन करने के पश्चात् बंध व्युच्छित्ति का निरूपण उपयोगी जानकर यहाँ पर दिया गया है जो इस प्रकार से हैमिथ्यात्वादि गुणस्थानों में क्रमशः बंध व्युच्छित्ति
___ मिथ्यात्व, हुण्डकसंस्थान, नपुंसकवेद, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय- त्रीन्द्रिय,-चतुरिन्द्रियजाति, सूक्ष्म, स्थावर, आतप, अपर्याप्त, सााधारण, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी और नरकायु इन 16
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