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________________ मदखेदक्लमविनाशार्थो यः स्वापः सा निद्रा तस्या जनकं यत् कर्म तत् निद्रादर्शनावरणं । यः सुप्तः स्वल्पशब्दश्रवणेन जागर्ति तस्य निद्रा विज्ञेया । निद्राया उपर्युपरि या प्रवर्त्तमाना सा निद्रानिद्रा तस्य कारणं निद्वानिद्रा - दर्शनावरणं । निद्रानिद्रा कर्मोदयेन वृक्षाग्रे सममूमौचांगी घोरयन् न घोरयन् वा निर्भरं शेते कष्टेन जागर्ति । या स्वापक्रियायामात्मानं प्रचलयति सा प्रचला। आसीनस्यापि नेत्रगात्रविक्रियासूचिका तस्या उत्पादकं यत् कर्म तत् प्रचलादर्शनावरणं । प्रचलायास्तीव्रोदयेन वालुकाभृते इव लोचने भवतः गुरु भारावष्टव्धमिव शिरो भवति । मद, खेद और परिश्रमजन्य थकावट को दूर करने के लिये नींद लेना निद्रा है । उस निद्रा को उत्पन्न करने वाला कर्म निद्रा दर्शनावरण है । जो प्राणी अल्प शब्द के द्वारा ही सचेत हो जाता है वह निद्रा है । इस निद्रा के ऊपर जो प्रर्वतमान है अर्थात् जो दूसरों के द्वारा उठाये जाने पर भी नही उठता है वह निद्रा निद्रा है, इस निद्रानिद्रा का कारण निद्रा-निद्रा दर्शनावरण है । निद्रा - निद्रा प्रकृति के तीव्र उदय से जीव वृक्ष के शिखर पर विषम भूमि पर घुरघुराता हुआ या नहीं घुरघुराता हुआ निर्भर अर्थात् गाढ़ निद्रा में सोता है । जो क्रिया आत्मा को चलायमान करती है वह प्रचला है, यह प्रचला बैठे हुये प्राणी के भी नेत्र, गात्र की विक्रिया की सूचक है, इसका उत्पादक जो कर्म है, वह प्रचला दर्शनावरण है । प्रचला प्रकृति के तीव्र उदय से लोचन वालुका से भरे हुए के समान हो जाते है सिर गुरुभार को उठाये हुये के समान भारी हो जाता है और नेत्र पुनः पुनः उन्मीलन एवं निमीलन करने लगते है । (13) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002694
Book TitleKarma Vipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherNirgrantha Granthamala
Publication Year2004
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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