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यथा देवतामुखे पट आच्छादयति मेघपटलं वा भानु तथा ज्ञानावरणकर्म हि आत्मज्ञानमाच्छदयति। रूपिद्रव्यावलोकनक्षम चक्षुदर्शनं तदावरणकरं यत् कर्म तत् चक्षुदर्शनावरणं। येंऽधा दृश्यते ते तस्यैव कर्मोदयेन। येन शेषचतुरिद्रियमनोऽवलंवनेन यदवलोकनं तदचक्षुदर्शनं तस्याच्छादकं यत् कर्म ततचक्षुदर्शनावरणं। रूपिवस्तुसामान्यावलोकनमवधिदर्शनं तस्यावरणमवधिदर्शनावरणं। युगपत्-त्रिकालगतद्रव्यगुणपर्यायसहित -लोकालोक-सामान्यविशेषप्रकाशककेवलज्ञानाविनाभूतं केवल -दर्शनं तस्यावरणं यत् कर्म तत् केवलदर्शनावरणं।
जिस प्रकार प्रतिमा के मुख पर वस्त्र तथा सूर्य के सम्मुख मेघपटल, मूल पदार्थ के स्वरूप को प्रकाशित नहीं होने देते उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म को जानना चाहिये । वह आत्मा के स्वरूप को प्रकाशित नहीं होने देता है।
रूपी द्रव्य को देखने में समर्थता चक्षुदर्शन है। इस चक्षुदर्शन के आवरण करने वाले कर्म को चक्षुदर्शनावरणी कहते है । यहां जो अंधे लोग दृष्टिगोचर होते है वे चक्षुदर्शनावरण कर्म के उदय से हैं।
चक्षुरिन्द्रिय के अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियों के और मन के द्वारा वस्तु का सामान्य ग्रहण अचक्षुदर्शन है, उसका आवरण करने वाला कर्म अचक्षुदर्शनावरणीय है ।
रूपी पदार्थो का सामान्य ग्रहण अवधिदर्शन है, उसका आवरण करने वाला अवधिदर्शनावरणीय है। युगपत् त्रिकालवर्ती द्रव्य, गुण और पर्याय सहित लोकालोक का सामान्य प्रकाशक केवलदर्शन है, उसके आवारक कर्म का नाम केवलदर्शनावरणीय है।
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