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________________ ॐनमः सिद्धेभ्यः कर्मविपाकः जिनेन्द्रान् धर्मचक्राकान् हतधातिरिपून् परान्। नष्टाष्टकर्मकायांश्च सिद्धान्साधून् गुणाकरान्।।1।। कर्मारिघातनोधुक्तान् नत्वा मूर्ना च भारती। वक्ष्ये कर्मविपाकारव्यं ग्रंथं कर्मारिहानये।।2।। आदौ प्रकृतिबंधोनुस्थितिबंधाभिधस्ततः । अनुभागः प्रदेशाख्य इति बंधश्चतुर्विधः।।3।। ज्ञानावरणमेवादौ पंचधा नवधा पुनः । दर्शनावरणं कर्मवेदनीयं द्विधा ततः।।4।। अष्टाविंशतिभेदं मोहनीयमायुरेव हि। चतुर्धा नाम द्विचत्वारिंशत्भेदं सुसंग्रहात्।5।। विस्तारा अधिकं वा नवति भेदप्रमं द्विधा। गोत्रं कर्मातरायं पंचधेति कर्मसंचयः ।।6।। अर्थ- अष्टकर्मों के समूह का नाश करने वाले सिद्धों, घातिया कर्मों का नाश करने वाले एवं धर्मचक्र का प्रर्वतन करने वाले तीर्थंकरों, कर्म रूपी शत्रुओं का नाश करने के लिए उद्यत तथा गुणों के भण्डार स्वरूप साधुओं और द्वादशांग जिनवाणी को सिर से नमस्कार कर कर्म रूपी शत्रुओं को नाश करने के लिए कर्म विपाक नाम का ग्रन्थ कहूँगा।।1-2|| प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बंध के भेद से कर्म बंध चार प्रकार का है।।3 ।। ज्ञानावरण 5, दर्शनावरण 9, वेदनीय 2, मोहनीय 28, नामकर्म 42, 93 अथवा और अधिक गोत्र 2 और अंतराय के 5 इस प्रकार कर्मों के 148 भेद जानना चाहिए।। 4-6|| (5) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002694
Book TitleKarma Vipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherNirgrantha Granthamala
Publication Year2004
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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