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होता है और पडिमात्रा (पूर्व में आनेवाली 'ए' की मात्रा) का निचला सिरा अक्षर की ओर मुड़ा हुआ होता है
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4. ह्रस्व इकार की दो मात्रा एवं दो मात्राओं के स्थान पर ह्रस्व इकार भी हो जाता है । जैसे - मि (म) का मै (- मि) और मै (-) का मि (= मि) ।
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5. कितने ही लिपिक दीर्घ ईकार के चिह्न को इस प्रकार से जोड़ते हैं कि 'आ' की मात्रा का भ्रम हो जाता है। जैसे कि मी (मी) का मा (मा) की तरह दिखना ।
6. पड़िमात्रा का ह्रस्व इकार (f) और ह्रस्व इकार की पडिमात्रा बन जाती है । जैसे कि वे (व) का वि (व) और उसी भाँति वि (वि) का वे (ख)। 7. कितने ही लिपिक अक्षर का खड़ा दंड नीचे से पतला और मुड़ा हुआ बनाते हैं। जैसे कि 'क', 'च'म' । इनकी नकल करते समय ये अक्षर हलन्त से युक्त ' क्" च्'म्' का भ्रम उत्पन्न करते हैं । यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि हलन्त हमेशा अक्षर से अलग होता है ।
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8. 'अ' के स्थान पर कभी-कभी '5' भी लिख देते हैं ।
9. 'र्य' के स्थान पर 'य' इस प्रकार का प्रयोग भी मिलता है ।
10. अक्षर के ऊपर दो रेफ का चिह्न 'आ' की मात्रा का चिह्न है । जैसे कि काम (= केम ) परन्तु इसको रेफ () पढ़ने की गलती हो जाती है ।
11. दीर्घ ईकार जब रेफ के साथ आता है तब इस प्रकार लिखा जाता है म (7), पर इसको 'मी' पढ़ने की गलती हो जाती है ।
कहने का अभिप्राय यह है कि उपर्युक्त सभी भूलों का निराकरण प्रति के 'उद्देश्य' से हो सकता है । उद्देश्य का पता हमें (1) प्रति के प्रथम पत्र के प्रथम पृष्ठ पर लिखा मिलता है, (2) या प्रति के अन्त में (पुष्पिका के अंत में ) अन्तिम पत्र पर लिखा होता है, (3) या यदि गुटकों- पोथियों में कुछ रचनाएँ एक हस्तलेख में हों और कुछ भिन्न में, तो प्राय: एक प्रकार के हस्तलेख के अन्त में मिलता है । अतः अध्येता को गुटका या पोथी के मध्य अंश को देखना
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सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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