________________
प्रधान होती थी। पढ़ते समय स्वच्छ तन-मन से चौकी पर या टिखरी (सम्पुटिका) पर रख कर ग्रंथ को पढ़ा जाता था। पुस्तकों की सुरक्षा के लिए ही यह आदरभाव पैदा किया जाता था। इस विषय में मुनि पुण्यविजयजी कहते हैं - ___ "पुस्तक- अपमान थाइ नहीं, ते बगड़े नहीं, तेने चानु बने के उड़े नहीं, पुस्तक ने शर्दी गर्मी वगेरेनी असर न लागे ये मारे पुस्तक ने पाठांनि वचमा राखी तेने ऊपर कवुल्टी अने बंधन बीटानि तेने सांपड़ा ऊपर राखता । जे पाना वाचनमां चालू होय तेमने एक पाटी ऊपर मूंहकी, तेने हाथनो पासेवो ना लागे ये माटे पानू अने अंगुठानी वचमा काम्बी के छेवटे कागज ना टुकड़ो जे बुंकाई राखी ने वांचता । चौमासानी ऋतुमां शर्दी भरमा वातावरणों समयानां पुस्तन ने भेज न लागे अने ते चोंटीन जाय ये माटे खास वाचननों उपयोगी पाना ने बहार राखी वाकीनां पुस्तक ने कवली कपडं वगैरे लपेटी न राखता।"
उपर्युक्त कथन के कहने का अभिप्राय यह है कि ग्रंथ के वाचन-पठन के लिए टिखरी का प्रयोग पुस्तक रखने के लिए किया जाये। ग्रंथ के पन्ने खराब न हों इसके लिए काम्बी या पटरी जैसी वस्तु पंक्तियों के सहारे रखकर पढ़ी जायें, ताकि अंगुलियों के पसीने आदि से वे गंदी न हों। सर्दी-गर्मी से बचाने के लिए उन्हें कपड़े के बस्ते में बन्द करके रखा जाये । हो सके तो लकड़ी या लोहे की पेटी में रखा जाये। इस प्रकार ग्रंथ की सुरक्षा बढ़ेगी। ___ (ग) चूहे या कंसारी आदि कीटों से भी पुस्तकों को बचाना चाहिए। यह पाण्डुलिपियों के बहुत बड़े शत्रु होते हैं । शायद इसीलिए प्राचीन पाण्डुलिपियों के अन्त में निम्न प्रकार की हिदायतें दी जाती थीं -
"अग्ने रक्षेत् जलाद् रक्षेत्, मूषकेम्यो विशेषतः।
कष्टेन लिखितं शास्त्रं, यत्नेन परिपालयेत्॥" "उदकानिल चौरेभ्यो, मूषके भ्यो हुताशनात्।
कष्टे न लिखितं शास्त्रं, यत्नेन परिपालयेत्॥" अर्थात् ग्रंथ की जल, मिट्टी, हवा, आग, चोर और विशेषरूप से चूहों से रक्षा की जानी चाहिए। कंसारी आदि कीड़ों से ग्रंथों की रक्षा करने के लिए उनमें 1. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ. 113
196
सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org