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सामान्यार्थ से हम परिचित हों, किन्तु विष्टार्थ से नहीं । वे शब्द किसी क्षेत्र - विशेष के भी हो सकते हैं, जिस क्षेत्र - विशेष में वह पाण्डुलिपि लिपिबद्ध की गई हो । प्राचीन काव्यों में ऐसे विशिष्ठ शब्द पर्याप्त मात्रा में प्राप्त हो सकते हैं ।
इस प्रकार के 'अपरिचित शब्द' की दृष्टि से एक उदाहरण देखिए - हद्दहि हट्ट भमन्तओ दूअओ राजकुमार ।
दिट्ठि कुतूहल कज्ज रस तो इट्ठ दरबार ।। 215 ॥ - कीर्तिलता, 2 / 33
इस दोहे में प्रयुक्त 'कज्ज रस' विशिष्टार्थक है । अत: यह अपरिचित माना जा सकता है । इस दोहे का प्रसंग दरबारी है अतः इसका अर्थ भी उसी संदर्भ में ग्रहण करना होगा ।
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कज्जन सं. कार्य प्रा. कज्ज अर्थात् ' अदालती फरियाद' या न्यायालय या राजा के सामने फरियाद । रस सं. रस प्रा. रस, अर्थात् चिल्लाकर कहना । 'कज्ज रस' का अर्थ हुआ 'अपनी फरियाद कहने के लिए' । इस प्रकार 'कज्ज' और 'रस' दोनों परिचित शब्द होने के बावजूद प्रसंग विशेष से अर्थ तक पहुँचने के लिए अपरिचित हैं । इसी प्रकार के अनेक शब्दों की ओर डॉ. किशोरीलाल ने भी संकेत किया है । 2
इस प्रकार 'शब्द' अर्थ तक पहुँचने का सोपान है । यथार्थ अर्थ शब्द की अपेक्षा सार्थक शब्दावली की सार्थक वाक्य योजना में निहित रहता है । वस्तुत: किसी भी कृति का सृजन किसी अर्थ को अभिव्यक्त करने के लिए होता है । यदि शब्द अपने ठीक रूप में ग्रहण नहीं किया गया तो अर्थ भी ठीक नहीं देगा। भर्तृहरि के 'वाक्य प्रदीप' में कहा है - ज्ञान जैसे अपने को और अपने ज्ञेय को प्रकाशित करता है उसी प्रकार शब्द भी अपने स्वरूप को तथा अपने अर्थ को प्रकाशित करता है। सच तो यह है कि अर्थ से ही शब्द की सार्थकता है । वह वाक्य में जो स्थान रखता है, उसी कारण से उसे वह अर्थ मिलता है ।
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3. अर्थ - समस्या
पाण्डुलिपि - अध्येता के लिए शब्द की समस्या की तरह अर्थ - समस्या भी अत्यधिक महत्वपूर्ण है। उस समस्या के निम्नलिखित कारण हैं
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1. कीर्तिलता : डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, पृ. 110 2. सम्मेलन पत्रिका, भाग 56, संख्या 2-3, पृ. 181-182
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सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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