________________
है कि अर्थ-ग्रहण शब्द-रूप पर निर्भर करता है। अर्थ का आधार शब्द-रूप ही है। 2. पाण्डुलिपि में प्राप्त शब्द-भेद
पाण्डुलिपि के प्राप्त होने पर सर्वप्रथम हमें उसकी लिपि को समझना होता है और भाषा की समस्या से जूझना होता है। इन दोनों प्रकार की समस्याओं का हल शब्द-रूपों में निहित रहता है। किसी भी पाण्डुलिपि में निम्नलिखित प्रकार के शब्द-भेद हो सकते हैं -
1. मिलित शब्द : जब किसी पाण्डुलिपि में एक ही पंक्ति में पूरा का पूरा वाक्य लिखा मिलता है तब मिलित शब्दों की समस्या आती है। इसमें शब्द अपना रूप अलग नहीं रखते। एक दूसरे से मिलते हुए पूरी पंक्ति को एक ही शब्द बना देते हैं। प्राचीन परम्परा के पाण्डुलिपि लेखक इसी प्रकार लिखते थे। जैसे -
'मानुसहोतोवहीरसखानवसौव्रजगोकुलगांवकेगुवारनि'। इस एक ही पंक्ति में एक साथ लिखे शब्दों में से पाठक अपनी सूझ-बूझ या समझ के अनुसार शब्द-रूप खड़े करता है। जैसे - (1) मानुस हों तो वहीं रसखान (2) मानु सहों तोव हीर सखा न आदि।
इससे स्पष्ट है कि अपने द्वारा खड़े किए गये शब्द-रूपों का अर्थ भी अपनी ही तरह निकाला जायेगा।
वस्तुत: मिलित शब्दों में पहली समस्या शब्द के यथार्थ रूप को, जो कवि को अभिप्रेत शब्दावली हो - को निर्दिष्ट करना है; क्योंकि ठीक शब्दरूपों को न पकड़ पाने के कारण अर्थ में कठिनाई आयेगी। इस संबंध में डॉ. सत्येन्द्र कहते हैं - "नवीन कवि कृत 'प्रबोध सुधासर' के छन्द 901 के एक चरण में 'शब्दरूप' यों ग्रहण किये गये हैं - 'तू तौ पूजै आँखतले वह तौ नखत ले' - शब्दरूप देने वाले को पूरे संदर्भ का ध्यान न रहा। मिलित शब्दावली से ये शब्दरूप यों ग्रहण किये जाने चाहिए थे – 'तू तौ पूजै आखत ले' आदि । 'आँख तले' से अर्थ नहीं मिलता। आखतः अक्षत: चावल से अर्थ ठीक बनता है।"
1. पाण्डुलिपिविज्ञान, पृ. 315
182
सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org