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1. कवि ने नाम ही न दिया हो जैसे ध्वन्यालोक में। 2. कवि ने नाम ऐसा दिया हो कि वह सन्देहास्पद लगे। 3. कवि ने कुछ इस प्रकार अपने नाम दिये हों कि प्रतीत हो कि वे अलग
अलग हैं। कवि हैं - एक कवि नहीं - सूरदास, सूर, सूरज आदि या ममारिक और मुबारक या नारायण दास और नाभा। 4. कवि का नाम ऐसा हो कि उसके ऐतिहासिक अस्तित्व को सिद्ध न
किया जा सके, यथा - चन्दवरदायी। 5. ग्रंथ सम्मिलित कृतित्व हो, कहीं एक कवि का तो कहीं दूसरे का नाम
दिया गया हो। जैसे - 'प्रवीणसागर' का। 6. ग्रंथ अप्रामाणिक हो और कवि का नाम जो दिया गया हो, वह झूठा
हो, यथा - 'मूल गुसाईं चरित', बाबा वेणीमाधवदास कृत। 7. कवि में पूरक कृतित्व हो। इससे यथार्थ के सम्बन्ध में भ्रांति होती हो,
जैसे - चतुर्भुज का मधुमालती और पूरक कृतित्व उसमें गोयम का। 8. विद्वानों में किसी ग्रंथ के कृतिकार कवि के सम्बंध में परस्पर मतभेद हो। 9. ग्रंथ के कई पक्ष हों; यथा - मूल ग्रंथ, उसकी वृत्ति और उसकी टीका।
हो सकता है मूल ग्रंथ और वृत्ति का लेखक एक ही हो या अलगअलग हो - जिससे भ्रम उत्पन्न होता हो। उदाहरणार्थ ध्वन्यालोक की
कारिका एवं वृत्ति। 10. लिपिकार को ही कवि समझ लेने का भ्रम, आदि।'
ऐसे ही और भी कारण हो सकते हैं । इस प्रकार की कृतियों में 'ध्वन्यालोक' पर विस्तार से चर्चाएँ हुई हैं । यही स्थिति नरपति नाल्ह के सम्बंध में कही जा सकती है। बीसलदेव रासो का रचनाकार गुजराती जैन कवि नरपति था या नरपतिनाल्ह, महाकवि भूषण और मुरलीधर कवि भूषण एक ही हैं या भिन्नभिन्न', पृथ्वीराज रासो का कवि चन्दवरदायी है या कोई और? आदि कई रचनाकारों के बारे में निर्णय करना बड़ा कठिन है।
1. पाण्डुलिपिविज्ञान, पृ. 301 2. व्रज साहित्य का इतिहास, डॉ. सत्येन्द्र, पृ. 366
काल-निर्णय
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