________________
यह उसकी रचना-तिथि की एक सीमा है। सं. 1508 की प्रति का पाठ अवश्य ही कुछ न कुछ प्रेक्षण पूर्ण हो सकता है, क्योंकि वही सबसे बड़ा है, और पाठान्तरों की दृष्टि से अनेक स्थलों पर उससे भिन्न प्रतियों के पाठ अधिक प्राचीन ज्ञात होते हैं, इसलिये रचना का समय सामान्यत: उससे काफी पहले का होना चाहिए। यह स्पष्ट है जैसा ऊपर कहा जा चुका है, प्रायः विद्वानों ने रचना की उक्त प्राचीनतम प्राप्त प्रति की तिथि से उसे एक शताब्दी पूर्व माना है। किन्तु मेरी समझ में यहाँ उन्होंने अटकल से ही काम लिया है। पूरी रचना आमोदप्रमोद और क्रीड़ापूर्ण नागरिक जीवन का ऐसा चित्र उपस्थित करती है जो मुख्य हिन्दी प्रदेश में 1250 वि. की जयचंद पर मुहम्मद गौरी की विजय के अनन्तर
और गुजरात में 1356 वि. के अलाउद्दीन के सेनापति उलुगखाँ की विजय के अनन्तर इस्लामी शासन के स्थापित होने पर समाप्त हो गया था। इसलिए रचना अधिक से अधिक विक्रमीय 14वीं शती के मध्य, ईस्वी 13वीं शती की होना चाहिए।"
इसके बाद निष्कर्ष रूप में डॉ. गुप्त कहते हैं - "इस व्याख्या से यह स्पष्ट ज्ञात होगा कि तेरहवीं शती ईस्वी की मुसलमानों की उत्तर भारत विजय से पूर्व का ही नागरिक जीवन रचना में चित्रित है। मुसलमानों के शासन के अन्तर्गत इस प्रकार की स्वच्छन्दता से नगर के युवक-युवतियों की नगर के क्रीडावनों में मिलने की कोई कल्पना नहीं कर सकता है जैसी वह इस काव्य में वर्णित हुई है। कवि किसी पूर्ववर्ती ऐतिहासिक युग का इसमें वर्णन भी नहीं करता है, वह अपने ही समय के वसन्त के उल्लास-विलास का वर्णन करता है, इसलिए मेरा अनुमान है कि 'बसन्तविलास' का रचनाकाल सं. 1356 के पूर्व का तो होना चाहिए और यदि वह सं. 1250 से भी पूर्व की रचना प्रमाणित हो तो मुझे आश्चर्य न होगा। संभव है उसकी भाषा का प्राप्त रूप इस परिणाम को स्वीकार करने में बाधक हो। किन्तु भाषा प्रतिलिपि-परम्परा में घिसकर धीरे-धीरे अधिकाधिक आधुनिक होती जाती है। इसलिए भाषा का स्वरूप प्राप्त परिणाम को स्वीकार करने में बाधक नहीं होना चाहिए।12
1. बसन्तविलास और उसकी भाषा : डॉ. माताप्रसाद गुप्त, पृ. 4-5 2. वही, पृ. 8
170
सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org