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की संभावना हो वहाँ स्वयं जाकर या पत्र-व्यवहार द्वारा सूचनाएँ एकत्र कर लेनी आवश्यक है। सूचना एकत्र करने के बाद उन ग्रंथों को उन-उन स्थानों से प्राप्त करने का प्रयास करना अपेक्षित है । कहीं से आपको मूल प्रति मिलेगी, तो कहीं से फोटो कापी या कहीं से किसी प्रतिलिपिकर्ता द्वारा प्रतिलिपि तैयार की हुई अथवा माइक्रो फिल्म लेनी पड़ सकती है। इस प्रकार येन-केन-प्रकारेण ग्रंथों का संग्रह करना चाहिए।
(ख) तुलना : इसके बाद प्राप्त ग्रंथों के पाठ की पारस्परिक तुलना करनी चाहिए। तुलना करने के लिए (1) पहले सभी ग्रंथों को कालक्रमानुसार लगा लेना चाहिए, (2) इसके बाद प्रत्येक ग्रंथ को एक संकेतनाम देना चाहिए। इससे ग्रंथ के पाठ-संकेत देने में सुविधा रहती है तथा समय और स्थान की बचत होती है। संकेतनाम किस प्रकार रखा जाये इसे संकेत-प्रणाली द्वारा समझना होगा।
संकेत-प्रणाली : ग्रंथ का नाम-संकेत देने की अनेक प्रणालियाँ हैं।
(अ) क्रमांक-प्रणाली : इस प्रणाली के अन्तर्गत सभी आधार-ग्रंथों को क्रमवार (कालक्रमानुसार) सूचीबद्ध करके उन्हें जो क्रमांक दिया जाये उन्हें ही ग्रंथ-संकेत मान लिया जाये। जैसे - (1) जयपुरवाली प्रति, (2) बीकानेरवाली प्रति, (3) आगरावाली प्रति आदि। जब-जब हम प्रति सं. (2) का उल्लेख करेंगे उसका अभिप्राय बीकानेरवाली प्रति ही समझा जायेगा। क्रमांकसंकेत देते समय ग्रंथ का विवरण भी देना चाहिए। इसके एक उदाहरणस्वरूप 'पृथ्वीराज रासो' की एक प्रति को डॉ. सत्येन्द्रजी ने आधार मानकर विस्तृत परिचय दिया है। संक्षेप में प्रति के परिचय में निम्नलिखित बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए - (क) पाण्डुलिपि की प्रति के प्राप्ति-स्थान एवं जिसके पास वह प्रति है उस
व्यक्ति का परिचय (ख) प्राप्त प्रति की वस्तु-स्थिति (1) क्या वह पूर्ण है, अपूर्ण है, पृष्ठ कटे
हैं या दीमक आदि द्वारा नष्ट हैं? (2) प्रति पृष्ठ कितनी पंक्तियाँ हैं और प्रति पंक्ति कितने शब्द हैं? (3) स्याही का रंग? (4) कागज कैसा है?
(5) सचित्र या सादा है? चित्र हैं तो कितने हैं आदि। (ग) छन्द संख्या ?
पाठालोचन
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