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औ' में भी वह है ३: । इसमें शिरोरेखा देकर 'उ' बनाया गया है। इसी में 'ऊ' की मात्रा लगाकर 'ऊ' बनाया गया है। यह 'ऊ' की मात्रा है - '2' और यह अशोककालीन ब्राह्मी की 'ऊ' की मात्रा का ही अवशेष है जो आज तक चला आ रहा है। ओ औ में 2 की रेखा को 3 की भाँति वृत्तांवित्त या घुण्डीयुक्त कर दिया गया है। फिर 3 पर शिरोरेखा में अशोक लिपि की परम्परा मिलती है। दोनों
ओर'-'यह लगाने से औ' बनता है। ये 'औ' की मात्राएँ हैं। औ' की मात्रा में भी एक रेखा (ऊ) की मात्रा के सिर पर चढ़ाई गई है। ये ब्राह्मी के अवशेष हैं । यही प्रवृत्ति कु-कू में भी मिलती है। के, के, को, कौ में बंगला लिपि की मात्राओं से सहायता ली गई है। ___ अब यहाँ कुछ विस्तार से राजस्थान के ग्रन्थों में मिलने वाली अक्षरावली या वर्णमाला पर विस्तार से वैज्ञानिक विश्लेषणपूर्वक विचार डॉ. हीरालाल माहेश्वरी के शब्दों में दिये जाते हैं : राजस्थानी की और राजस्थान में उपलब्ध प्रतियों के विशेष संदर्भ में उनकी वर्णमाला विषयक ज्ञातव्य बातें निम्नलिखित हैं - 1. (क) राजस्थान में उपलब्ध ग्रन्थों में प्रयोग में आयी देवनागरी की वर्णमाला
की कुछ विशेषताएँ कहीं-कहीं मिलती हैं। उन्हें हम इन वर्गों में
विभाजित कर सकते हैं : (अ) विवादास्पद वर्ण (आ) भ्रान्त वर्ण (इ) प्रमाद से लिखे गये वर्ण (ई) विशिष्ट वर्ण चिह्न, उनका प्रयोग करना अथवा न करना तथा (उ) उदात्त-अनुदात्त-ध्वनि वर्ण । पहले प्रत्येक के एकाध उदाहरण देकर इनको स्पष्ट करना है - (अ) विवादास्पद (Controversial) वर्गों के उदाहरण थ> ६। ६ थ
श (सं. 1887 पोह सुदि 1 को लिखे
गए बीकानेर परवाने से) अन्य च । अ च । , परवानों में भी ऐसे ही रूप दोनों थ
छ के मिलते हैं, सं. 1907 तक।)
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सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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