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९०/पार्श्वपुराण
धिक किनकौं कहिये सर्वंग । जे धरि करें प्रतिग्या भंग || कौन जीवके बैरी लोय । काम क्रोध हैं और न कोय ||१६१।। जननी जगमैं कौन मलीन । पातक-पंक-मलिन मतिहीन ।। कहो कौन नर नित्त पवित्त । ब्रह्मचर्यधारी दिढ़ चित्त ।।१६२।। कौन पसू मानुष आकार | जिनके हिरदै नाहिं विचार ।। अंध कौन जो देव अदेव । कुगुरु सुगुरुको भेद न भेव ।।१६३।। बधिर कौनसे उत्तर देह । जैनसिधाँत सुनै नहिं जेह ।। मूक नाम नर कैसैं लहै । जो हित सांच वचन नहिं कहै ||१६४।। लाँबी भुजा कौन करहीन | जिनपूजा मुनिदान न दीन || कौन पाँगले पाँव समेत । जे तीरथ परसैं न अचेत ||१६५।। कौन कुरूप जननि कह एह । सीलसिंगार बिना नर जेह || वेग कहा करिये बड़भाग । दिच्छागहन जगतको त्याग ||१६६।। मित्र कौन हितवंचक होय । धर्म दिढ़ावै आलस खोय ।। सत्रु कौन जो दिच्छा लेत । विघन करै परभव दुखहेत ||१६७।। जियकौं कौन सरन है माय | पंच परमगुरु सदा सहाय ।। इहिबिध प्रस्न करें सुरनारि । माता उत्तर देहिं विचारि ॥१६८| वामादेवी सहज प्रवीन । सकल मरम जानै गुनलीन ।। पुरुष-रतन उर अन्तर बहै । क्यों नहि ग्यान अधिकता लहै ।।१६९॥
दोहा । निबसैं निर्मल गर्भ मैं, तीन ग्यान-गुनवान || फटिक महलमैं जगमगैं, ज्यों मनि दीप महान ||१७०।। उदयवान दिनकर-समय, पूर्व दिसा छबि जेम ।। त्रिभुवनपति-सुत उर धरै, सोहत जननी एम ||१७१।। गर्भभार व्यापै नहीं, त्रिबली भंग न होय ॥ देह न दीखै पीतछबि, और विकार न कोय ॥१७२।।
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