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जीव उनकी तपस्या में विघ्न करता है; पर पार्श्वनाथ अपनी साधना से विचलित नहीं होते । केवलज्ञान प्राप्त होने पर वे प्राणियों को धर्मोपदेश देते हैं और अन्त में सम्मेदाचल से निर्वाण प्राप्त करते हैं ।
नायक पार्श्वनाथका जीवन अपने समय के समाज का प्रतिनिधित्व करता हुआ लोक-मंगलकी रक्षा के लिए बद्धपरिकर है । कविने कथा में क्रमबद्धता का पूरा निर्वाह किया है । मानवता और युगभावना का प्राधान्य सर्वत्र है; पर स्थिति-निर्माण में पूर्व के नौ भवोंकी कथा जोड़कर कवि ने पूरी सफलता प्राप्त की है । जीवन का इतना सर्वांगीण और स्वस्थ विवेचन एकाध महाकाव्य में ही मिलेगा । इसमें एक व्यक्तिका जीवन अनेक अवस्थाओं और व्यक्तियों के बीच अंकित हुआ है । अतः इसमें मानवके रागद्वेषों की क्रीड़ा के लिए विस्तृत क्षेत्र है । मनुष्य का ममत्व अपने परिवार के साथ कितना अधिक रहता है, यह पार्श्वनाथ के जीव मरुभूति के चरित्र से स्पष्ट है ।
वस्तुव्यापार-वर्णन, घटना-विधान और दृश्य-योजनाओं की दृष्टिसे भी यह काव्य सफल है । कवि जीवन के सत्यको काव्य के माध्यम से व्यक्त करता हुआ कहता है .
बालक - काया कुंपल लोय । पत्ररूप - जोबन में होय ।। पाको पात जरा तन करै । काल-बयारि चलत पर झरै ।। मरन-दिवस को नेम न कोय | यातै कछु सुधि परै न लोय ।। एक नेम यह तो परमान | जन्म धरै सो मरै निदान ।।४।। ६५-६७
अर्थात् किशोरावस्था कोंपलके तुल्य है । इसमें पत्रस्वरूप यौवन अवस्था है | पत्तों का पक जाना जरा है । मृत्युरूपी वायु इस पके पत्ते को अपने एक हल्के धक्के से ही गिरा देती है | जब जीवन में मृत्यु निश्चित है तो हमें अपनी महायात्राके लिए पहलेसे तैयारी करनी चाहिए ।
जीवन का अर्न्तदर्शन ज्ञान-दीपके द्वारा ही संभव है, पर इस ज्ञान-दीप में तपरूपी तैल और स्वात्मानुभवरूपी बत्ती का रहना अनिवार्य है।
ज्ञान-दीप तप-तेल भर, घर शोधे भ्रम छोर ।
या विधि बिन निकसै नहीं, पैठे पूरब चोर ।।४।। कविने इस काव्यकी समाप्ति वि. सं. १७८९ आषाढ़ शुक्ला पंचमी को की है ।
१. संवत् सतरह शतकमैं , और नवासी लीय ।
सुदि अषाढ़ तिथि पंचमी, ग्रन्थ समापत कीय ।।
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