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________________ २. जैन शतक - इस रचनामें १०७ कक्ति , दोहे, सवैये और छप्पय है । कविने वैराग्य-जीवन के विकास के लिए इस रचनाका प्रणयन किया है । वृद्धावस्था, संसार की असारता, काल सामर्थ्य, स्वार्थपरता, दिगम्बर मुनियोंकी तपस्या, आशा-तृष्णा की नग्नता आदि विषयों का निरूपण बड़े ही अद्भुत ढंग से किया है । कवि जिस तथ्यका प्रतिपादन करना चाहता है उसे स्पष्ट और निर्भय होकर प्रतिपादित करता है । नीरस और गूढ़ विषयों का निरूपण भी सरस एवं प्रभावोत्पादक शैली में किया गया है । कल्पना, भावना और विचारों का समन्वय सन्तुलित रूपमें हुआ है । आत्म-सौन्दर्यका दर्शन कर कवि कहता है कि संसार के भोगों में लिप्त प्राणी अहर्निश विचार करता रहता है कि जिस प्रकार भी संभव हो उस प्रकार मैं धन एकत्र कर आनन्द भोगूं । मानव नाना प्रकार के सुनहले स्वप्न देखता है और विचारता है कि धन प्राप्त होने पर संसार के समस्त अभ्युदयजन्य कार्योंको सम्पन्न करूँगा, पर उसकी धनार्जनकी यह अभिलाषा मृत्यु के कारण अधूरी ही रह जाती है । यथा चाहत है धन होय किसी विध, तो सब काज करे जिय राजी । गेह चिनाय करूँ गहना कछु, ब्याहि सुता सुत बाँटिय भाजी ।। चिन्तत यों दिन जाहिं चले, जम आनि अचानक देत दगाजी । खेलत खेल खिलारि गये, रहि जाइ रूपी शतरंजकी बाजी ।। इस संसार में मनुष्य आत्मज्ञान से विमुख होकर शरीर की सेवा करता है । शरीर को स्वच्छ करने में अनेक साबुन की बट्टियाँ रगड़ डालता है और अनेक तेलकी शीशियाँ खाली कर डालता है । फैशन के अनेक पदार्थों का उपयोग शारीरिक सौन्दर्य प्रसाधन में करता है, प्रतिदिन रगड़-रगड़ कर शरीर को साफ करता है । इत्र और सेण्टोंका व्यवहार करता है । प्रत्येक इन्द्रिय की तृप्तिके लिए अनेक पदार्थों का संचय करता है । इस प्रकार से मानव की दृष्टि अनात्मिक हो रही है । वह शरीर को ही सब कुछ समझ गया । कवि भूधरदास ने अपने अन्तस् में उसी सत्यका अनुभव कर जगतके मानवों को सजग करते हुए कहा मात-पिता-रज-बीरज सौं, उपजी सब सात कुधात भरी है । माखिनके पर माफिक बाहर, चामके बेठन बेढ़ धरी है ।। नाहिं तो आय लगें अबहीं, बक वायस जीव बचै न घरी है। देह-दशा यह दीखत भ्रात, घिनात नहीं किन बुद्धि हरी है ।। इस प्रकार कविने इस शतक में अनात्मिक दृष्टि को दूर कर आत्मिक दृष्टि स्थापित करने का प्रयास किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002686
Book TitleParshvapurana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Kavi, Nathuram Premi
PublisherSanmati Trust Mumbai
Publication Year2001
Total Pages175
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size6 MB
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