________________
पाँचवाँ अधिकार/८७
दोहा । सुनि वामादे सुपनफल, रोमांचित तन भूर ।। सुवचन-जल सींचत किधौं, उगे हरष अंकूर ||१२७।।
चौपाई। अब सौधर्म सुरेस विचार । स्वामि-गर्भ-अवसर निरधार || कुलगिरि-कमलवासिनी जेह | श्रीआदिक देवी गुनगेह ||१२८।। तिन्हैं बुलाय कह्यौ सुभ भाव । अस्वसेन भूपति घर जाव || वामादेवीके उरथान । तेवीसम जिन उतरे आन ||१२९।। तिनकी गर्भ सौधना करो । निज नियोग सेवा मन धरो || यह सुनि सब आनंदित भई । इंद्र-आन माथे धर लई ||१३०॥ सुरगलोक तजि आई तहां | बसै बनारसि नगरी जहां ।। महाकांत तन लावनभरी । मानौं नभ-दामिनि अवतरीं ॥१३१।। अंग अंग सब सजे सिंगार | रूपसंपदा अचरजकार || चूडामनि माथे जगमगै । देखत चकाचौंध सी लगै ||१३२।। सुरतरु-सुमनदाम उर धरी । अति सुवास दसदिसि विस्तरी ।। श्रवन-सुखद नेवर-झंकार | सोभा कहत न आवै पार ||१३३।। आय नृपतिके पायन नईं । आयस मांगि महलमैं गईं ।। सिंहासनथित माय निहार । करि प्रनाम कीनों जैकार ||१३४।।
दोहा । जननीदेह सुभावसौं, अतिनिर्मल अविकार || ताहि कुलाचलवासिनी, और करै सुचि सार ।।१३५।। कृष्णपाख वैशाख दिन, दुतिया निसि-अवसान || विमल विशाखा नखतमैं , बसे गर्भ जिन आन ||१३६।। जथा सीप संपुट विर्षे, मोती उपजै आन || त्योंही निर्मल गर्भमैं, निराबाध भगवान ||१३७।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org