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५८/पार्श्वपुराण
रवि-विमान मनि कंचनमई । निरमापो अद्भुत छबि छई ।। जैन भवन करि मंडित सोय देिखत जनमन अचरज होय ||५७।। पूजा तहां करै नित राय | महा महोच्छव हर्ष बढ़ाय || प्रतिदिन देय दया उर आन । दीन दुखित जनकौं बहु दान ।।५८ ।। यह नितनेम करै भूपाल | चली नगरमैं सोई चाल || सब सूरजकौं करें प्रनाम । देखादेखि चल्यौ मत ताम ||५९।। समझें नहीं मूढ़ परनये । भानुउपासक तबसौं भये ।। जो महंत नर कारज करै । ताकी रीत जगत आचरै ॥६०|| यों बहु पुन्य करै भूपाल । सुखमैं जात न जान्यौ काल ।। एक दिना निजसभा नरेस । निबसै मानौं सुरग-सुरेस ॥६१॥ धवल केस देख्यौ निज सीस | मन कंप्यौ सोचै नरईस ।। जाहि देखि मन उत्सव घटै । कामी जीवनको उर फटै ॥६२।। सो लखि सेत बाल भूपाल | भोग उदास भये ततकाल || जगतरीति सब अथिर असार । चिंतै चितमैं मोह निवार ||६३।। बाल अवस्था भई बितीत । तरुनाई आई निज रीत ।। सो अब बीती जरा पसाय | मरन दिवस यो पहुंचै आय ||६४।। बालक काया फॅपल सोय । पत्ररूप जोबनमैं होय ।। पाको पात-जरा तन करै । काल बयारि चलत झर परै ।।६५॥ कोई गर्भमाहिं खिर जाय । कोई जनमत छोडै काय || कोई बाल दसा धरि मरै | तरुन अवस्था तन परिहरै ।।६६।। मरन दिवसको नेम न कोय । यातें कछु सुधि परै न लोय ।। एक नेम यह तो परमान । जन्म धरै सो मरै निदान ॥६७।। महापुरुष उपजे बड़भागि । सब परलोक गये तन त्यागि । संसारी जन अपनी बार । पूरब उदै करै अनुसार ॥६८।। परवत-पतित नदीके न्याय । छिनही छिन थिति बीती जाय ।। राग अंध प्रानी जगमाहिं । भोगमगन कछु सोचै नाहिं ॥६९।।
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