________________
१५६/पार्श्वपुराण
तहां सातसै तापसी, करत कष्ट अग्यान ॥ देखि जिनेसुर-संपदा, जग्यौ जथारथ ग्यान ||२५०|| दई तीन परदच्छिना, प्रनमैं पारसदेव ।। स्वामि-चरन संयम धस्यौ, निंदी पूरव टेव ||२५१।। धन्य जिनेसुरके वचन, महामंत्र दुखहंत ।। मिथ्यामत-विषधर-डसे, निर्विष होहिं तुरंत ॥२५२।। कहां कमठसे पातकी, पायौ दरसन सार || कहां पाप-तप-तापसी, धस्यौ महाव्रत-भार ||२५३।। जिनके वचन-जहाज चढ़ि, उतरे भवजल-पार || जे प्रतच्छ आये सरन, क्यों न होय उद्धार ||२५४|| अब श्रीगनधरदेव तह, चार ग्यान परवीन || जिन-समुद्रतें अर्थजल, मतिभाजन भर लीन ||२५५।। नाम स्वयंभू दयानिधि, विबिध रिद्धि-गुनखेत ।। द्वादसांग रचना करी, जगत जीव हित-हेत ||२५६।। परमागम अमृत-जलधि, अवगाहैं मुनिराय || जन्म-जरा-मृतदाह हरि, होय सुखी सिव पाय ||२५७।।
चौपाई। प्रथम एकसौ बारह कोड़ । लाख तिरानवै ऊपर जोड़ ।। बावन सहस पांच पद सही । द्वादसांगकी परमित कही ।।२५८।।
पद्धड़ी। इक्यावन कोड़ी आठ लाख । चौरासी सहस सिलोक भाख ।। छस्सै साढ़े इक्कीस जान । यह एक महापदको प्रमान ||२५९।।
दोहा । इहि बिध सभासमूह सब, निवसै आनंदरूप ।। मानौं अम्रत नीरसौं, सिंचत देह अनूप ।।२६०।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org