________________
अति निर्मल चारित-भंडार । ग्यान ध्यान तत्पर अविकार || ख्याति लाभ पूजा नहिं चहैं । ते अहमिंद-संपदा गहैं ||२३९॥
पंच करन बैरी वस आन । चारित पालैं अति अमलान || दुद्धर तप कर सोखैं काय । चक्री होंय देवपद पाय || २४० ||
नौवाँ अधिकार/ १५५
जे सम्यकदृष्टी गुनग्रही । सोलहकारन भावैं सही ॥ ते तीर्थंकर त्रिभुवनधनी । होहिं तीन जग चूड़ामनी || २४१||
दोहा इहिबिध पूछनहारकौ, समाधान जिनराज || कीनौ गनधरदेव प्रति, जगत- जीव- हितकाज ॥ २४२॥
बानी सुन बारह सभा, भयो सबन आनंद || जैसे सूरजके उदय, विकसै वारिजवृंद ॥२४३॥ वचन-किरनसौं मोहतम, मिट्यौ महा दुखदाय || वैरागे जगजीव बहु, काललब्धि-बल पाय || २४४॥ चौपाई | केई मुक्तिजोग बड़भाग । भये दिगंबर परिग्रह त्याग ॥ किनही श्रावक - व्रत आदरे । पसु-पर्याय अनुव्रत धरे ॥२४५॥
केई नारि अर्जिका भईं । भर्ताके संग बनकौं गईं ॥ केई नर पसु देवी देव । सभ्यकरत्न लह्यौ तहां एव || २४६ ||
केई सक्तिहीन संसारि । व्रत भावना करी सुखकारि ॥ पूजा - दान-भाव परिनये । जथाजोग सब सेवक भये ॥ २४७ ॥ |
दोहा | कमठ जीव सुर-जोतिषी, करि वचनामृत पान |
बैर मिथ्यात्व विष, नम्यौ चरन जुग आन || २४८||
सम्यक दरसन आदस्यौ, मुक्ति-तरोवर-मूल ॥ संकादिक मल परिहरे, गई जनमकी सूल ॥ २४९ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org