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________________ नौवाँ अधिकार/१५३ मलमूत्रादिक-भोजन-काल । मौन छोड़ि बोलैं बाचाल ।। झूठ कहत कछु कै नाहिं । ते गूंगे जनमैं जगमाहिं ॥२१५।। परतियमुख देखें करि नेह । निरखें सब योनादिक देह ।। बधबंधन या0 धरि राग । ते मरि आंधे होहिं अभाग ||२१६।। जे नर करैं कुतीस्थ-गौन | बहुत बोझ लादै बिनमौन ।। वृथाविहारी देख न चलैं । होय पंगु ते पातक फलैं ॥२१७॥ नीति-बनिज करि लछमी लेहिं । ओछा लेहिं न अधिका देहिं ।। अलप वित्त दानादिक करें । ते नर दरबधनी अवतरै ।।२१८।। जे धन पाय धरै अभिमान । समरथ होकर देहिं न दान || धनकारन छलछिद्र कराहिं । बढ़त परिग्रह धापैं नाहिं ॥२१९।। लछमीवंत कृपन जन जेह । परभव होहिं दरिद्री तेह || . मंद कषायी सरल सुभाव । अहनिसि बरतें पूजाभाव ||२२०॥ निज-वनिता-संतोषी सदा । मंदराग दीखें सर्वदा ।। दुराचार जिनके नहिं होय । पुरुषवेद पावै सुरलोय ॥२२१।। जे अतिकामी कुटिल अतीव । महा सरागी मोहित जीव ।। पर वनितारत सोक-संजुक्त । ते कामिनि-तन लहैं निरुक्त ।।२२२।। रागअंध अति जे जगमाहिं । कामभोगसौं तृपते नाहिं ।। वेस्या-दासी-रक्त कुसील । ते नर लहैं नपुंसकडील ||२२३।। मनवचकाय महानिर्दई । बध बंधन ठानैं अघमई ।। परकौं पीड़ा बहुबिध करें । ते जिय अलप आयु धरि मरै ।।२२४।। कृपावंत कोमल परिनाम । देखि विचारि करें सब काम || जीवदयामैं तत्पर सदा । परकौं पीड़ा देहिं न कदा ॥२२५।। सबही जीवनसौं हितभाव । धरै पुरुष ते दीरघ आव || जे जिन-जग्य-परायन नित्त । पात्र-दानरत सील पवित्त ।।२२६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002686
Book TitleParshvapurana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Kavi, Nathuram Premi
PublisherSanmati Trust Mumbai
Publication Year2001
Total Pages175
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size6 MB
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