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१५२/पार्श्वपुराण
नीच देव सेवा रसरचे । धरैं कृस्नलेस्या मद-मचे ॥ इत्यादिक करनी-रत रहें। ऐसे नीच नरकगति लहैं ||२०५ ॥
छप्पय ।
सप्तमसौ पसु होय, देस संयम न संभालै । छठे नरकसौं मनुष, होय व्रत नाहीं पालै ॥ पंचमसौं व्रत धरै, मोखगतिकौं नहिं साधै । चौथेसौं सिव जाय, नहीं तीरथपद लाधै ॥ सब सुभ्रवाससौं आयकै, वासुदेव नहिं भव धरै ॥ प्रति वासुदेव बलदेव पुनि, चक्रवर्ति नहिं अवतरै ||२०६||
चौपाई |
मायाचारी जे दृठ जीव । परपंचनमैं निपुन अतीव ।। झूठ लिखें अरु चुगली खाहिं । झूठी साखि भरत भय नाहिं ॥२०७॥
सील न पालैं मोह उदोत । लेस्या जिनकै नील कपोत || आरतध्यानी धर्मविहीन । पसुपर्याय लहैं अकुलीन ॥२०८॥
आरत रौद्र रहित नीराग । धर्म-सुकल ध्यानी बड़भाग ॥ जिनसेवक पालैं व्रत सील । कसैं करन मदमाते कील ॥ २०९॥
जिनप्रतिमा जिनमंदिर ठवैं । सातखेत उत्तम धन बवैं ॥ सदाचार सुन स्रावक होय । जथाजोग पावैं सुर लोय ॥२१०॥
सहज सरल-परनामी जीव । भद्रभाव उर धरैं सदीव || मंद मोह जिनके देखिये । मंद कषाय प्रकृति पेखिये ||२११||
अलपारंभ अलप धन चहैं । उर कपोत लेस्या निर्बहैं || पुन्य पाप नहिं बरतें दोय । मिस्रभावसौं मानुष होय ॥२१२||
परके दोष सुनैं मन लाय । विकथा बानी बहुत सुहाय ॥ कुकवि काव्य सुन हरषै जोय । ते बहरे उपजैं परलोय || २१३॥
पढ़ें सुछंद विवेक न करें । मृषापाठ विकथा विस्तरैं ।। परनिंदा भावैं बहुभाय । निज परसंसा करें बढ़ाय || २१४||
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