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१४६/पार्श्वपुराण
ये सब सात तत्त्व बरनये । पुन्यपाप मिलि नौपद भये ॥ आस्रव तत्त्व विषै ये दोय । गर्भित जान लीजिये सोय ॥१४४॥
दोहा । जीव जथारथ दिष्टिसौं, सरधै तत्वसरूप ॥
सो सम्यक दरसन सही, महिमा जास अनूप || १४५||
नयप्रमान निच्छेप करि, भेदाभेद विधान || जो तत्वको जाननो, सोई सम्यक ग्यान || १४६ ||
सो सामान्य विलोकिये, दरसन कहिये जोय || जो विसेस कर जानिये, ग्यान कहावै सोय || १४७||
चारित किरियारूप है, सो पुनि दुबिध पवित्त ॥ एक सकल चारित्र है, दुतिय देसचारित ॥१४८॥
अड़िल्ल । जहां सकल सावद्य, सर्वथा परिहरै || सो पूरन चारित्र, महा मुनिवर धरै ॥ लेश त्याग जहं होय, देशचारित वही ॥ सो गृहस्थ धर्म, गृही पालै सही ||१४९ ॥
दोहा | तीर्थंकर निरग्रंथ पद, धर साधो सिवपंथ || सोई प्रभु उपदेसियो, मोखपंथ निरग्रंथ ॥ १५०॥
दसबिध बाहिज ग्रंथ मैं, राखै तिल तुस मान || तौ मुनिपद कहिये नहीं, मुनि बिन नहिं निर्वान || १५१||
जे जन परिग्रहवंतौं, मानैं मुक्ति निवास || ते कबही न मुकत लहैं । भ्रमैं चतुरगति वास ॥१५२॥
क्रोधादिक जबही करे, बंधै कर्म तब आन ॥ परिग्रहके संयोगसौं, बंध निरंतर जान ||१५३॥
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