________________
नौवाँ अधिकार/१४५
तिनही भावनके अनुसार । ढिगवरती पुद्गल तिहि बार || आवै कर्म भावके जोग | सो दरवित आस्रव अमनोग ||१३३||
सोरठा । रागादिक परिनाम, जिनसौं चेतन बँधत है ।। तिन भावनको नाम, भावबंध जिनवर कह्यो ॥१३४।।
दोहा । जो चेतन परदेसपै, बैठे कर्म पुरान ।। नये कर्म तिनसौ बँधै, दरवबंध सो जान ||१३५।।
पद्धड़ी। आस्रव अविरोधनहेत भाव । सो जान भावसंवर सुभाव ।। जो दर्वित आस्रव सुद्धरूप । सो होय दरव संवरसरूप ।।१३६।। व्रत पंच समिति पांचौं सुकर्म । वर तीन गुप्ति दस भेद धर्म ।। बारह बिध अनुप्रेच्छा विचार । बाईस परीषहविजय सार || पुनि पांच जात चारित असेस । ये सर्व भावसंवर विसेस ।। इनसौं कर्मास्रव रुकै एम | परनालीके मुख डाट जेम ||१३८।।
दोहा । सुभ उपयोगी जीवके, व्रत आदिक आचार || पापास्रव अविरोधकौं, कारन हैं निर्धार ||१३९।। सुध उपयोगी साध जे, तिनकै ये आचार ।। पुन्यपाप दोऊनकौं, संवर हेत विचार ||१४०।।
चौपाई। तपबल कर्म तथा थिति पात । जिन भावों रस दे खिर जात ॥ तेई भाव भावनिर्जरा | संवरपूरव है सिवकरा ||१४१।। बंधे कर्म छूटें जिसबार । दरब-निर्जरा सो निर्धार || इहिबिध जिनसासनमैं कह्यौ । समकितवंत सांच सरदह्यौ ।।१४२।। जो अभेद रतनत्रय भाव । सोई भावमोख ठहराव ।। जीव कर्मसौं न्यारा होय । दरवमोच्छ अविनासी सोय ||१४३।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org