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________________ आठवाँ अधिकार/१३१ ये सब एक जनम संजोग । किंचित सुखदातार नियोग ।। त्रिभुवनाथ तुमारी सेव । जनम जनम सुखदायक देव ।।१५७।। तुम जगबांधव तुम जगतात । असरन सरन-विरद-विख्यात || तुम जगजीवनके रछपाल । तुम दाता तुम परम दयाल ||१५८॥ तुम पुनीत तुम पुरुष पुरान । तुम समदरसी तुम सबजान । तुम जिन जग्यपुरुष परमेस | तुम ब्रह्मा तुम विष्णु महेस ||१५९।। तुमही जगभरता जगजान । स्वामि स्वयंभू तुम अमलान || तुम बिन तीनकाल तिहुंलोय । नहिं नहिं सरन जीवकों कोय ।।१६०।। तिस कारन करुनानिधि नाथ । प्रभु सनमुख जोरे हम हाथ ।। जबलौं निकट होय निरवान । जगनिवास छूटै दुखदान ||१६१।। तब लौं तुम चरनांबुज-बास । हम उर होहु यही अरदास ॥ और न कुछ वांछा भगवान । यह दयाल दीजै वरदान ||१६२।। दोहा । इहिबिध इंद्रादिक अमर, करि बहुभगति विधान || निज कोठे बैठे सकल, प्रभु-सम्मुख सुखमान ||१६३।। जीति कर्मरिपु जे भये, केवललब्धि निवास || ते श्रीपारसप्रभु सदा, करो विघन-घन नास ||१६४।। इति श्रीपार्श्वपुराणभाषायां भगवत्ज्ञानकल्याणकवर्णनं नाम अष्टमोऽधिकारः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002686
Book TitleParshvapurana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Kavi, Nathuram Premi
PublisherSanmati Trust Mumbai
Publication Year2001
Total Pages175
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size6 MB
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