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११४/पार्श्वपुराण
दोहा । जिस साहबकी पालकी, इंद्र उठावनहार || तिस गुनमहिमा-कथन अब, पूरन होउ अपार ||१२७||
चौपाई। यो सुर नर हरषित भये । अस्व नाम वनमैं चलि गये ।। बड़-तरु तलैं सिला सुभ जहां । कीनौं सची सांथिया तहां ||१२८।। उतरे प्रभु अति उत्तम ठाम | सांत भयौ कोलाहल ताम || सत्र-मित्र ऊपर समभाव | तिन-कंचन गिन एक सुभाव ।।१२९।। सोमभाव स्वामी उर धार । पटभूषन सब दीनैं डार ।। उदासीन उत्तरमुख भये । हाथ जोर सिद्धन प्रति नये ||१३०।। दुबिध परिग्रह तजि परमेस | पंच मुष्टि लोचे सिरकेस | सिव-कामिनिकी दूती जोय | धरी दिगंबर-मुद्रा सोय ||१३१।।
दोहा । सोहै भूषन वसन बिन, जातरूप जिनदेह ।। इंद्र नीलमनिकौ किधौं, तेजपुंज सुभ येह ।।१३२।। पोह प्रथम एकादसी, प्रथम पहर सुभ वार || पद्मासन श्रीपार्सजिन, लियौ महाव्रतभार ||१३३।। और तीनसै छत्रपति, प्रभुसाहस अविलोय || राज छारि संयम धस्यौ, दुख-दावानल-तोय ॥१३४॥ तब सुरेस जिनकेस सुचि, छीरसमुद पहुँचाय || कर थुति साध नियोग सब, गयौ सुरग सुरराय ||१३५।।
चौपाई। अब स्वामी बनथान मनोग । तेला थापि दियौ जिन जोग ।। अट्ठाईस मूलगुन भाख | उत्तरगुन चौरासी लाख ||१३६।। सब प्रभु धरे परम समचेत । अचल अंग मुख मौनसमेत ॥ यों बन बसत उपन्यौ जान । संजम-बल मनपर्जयग्यान ||१३७।।
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