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११२/पार्श्वपुराण
तप-बल पूर्व करम खिर जाहिं । नये ग्यानबल आचैं नाहिं ।। यही निर्जरा सुखदातार । भवकारन-तारन निरधार ||१०२।। स्वयंसिद्ध त्रिभुवनथित जान | कटि कर धरै पुरुष संठान || भ्रमत अनादि आतमा जहां । समकित बिन सिव होय न तहां ||१०३।। दुर्लभ धर्म दसांग पवित्त । सुखदायक सहगामी नित्त ।। दुर्गति परत यही कर गहै । देय सुरग सिवथानक यहै ||१०४।। सुलभ जीवकौं सब सुख सदा । नौग्रीवक ताईं संपदा ।। बोधरतन दुर्लभ संसार | भव-दरिद्र-दुख मेटनहार ||१०५।। ये दस-दोय भावना भाय । दिढ़ वैरागि भये जिनराय ।। देहभोग संसार सरूप | सब असार जान्यौ जगभूप ||१०६।। इतनैं लोकांतिक सुर आय । पुहपांजलि दे पूजे पाय ।। ब्रह्मलोकवासी गुनधाम । देव रिषीश्वर जिनको नाम ||१०७।। सब पूरवपाठी बुधवंत । सहज सोममूरति उपसंत || वनिताराग हियँ नहिं बहैं । एक जनम धरि सिवपद लहैं ।।१०८।। तीर्थंकर जब विरकत होय । हर्षवंत तब आवें सोय ।।
और कल्यानक करें प्रनाम । सदा सुखी निवसैं निज धाम ||१०९।। हाथ जोरि बोले गुनकूप । थुतिवायक अरु सिच्छारूप || धनि विवेक यह धन्य सयान । धनि यह औसर दयानिधान ||११०|| जान्यौ प्रभु संसार असार । अथिर अपावन देह निहार | इंद्रिय-सुख सुपने सम दीस । सो याही बिध हैं जगईस ||१११।। उदासीन असि तुम कर धरी । आज मोह-सेना थरहरी ।। बढ्यौ आज सिवरमनि सुहाग | आज जगे भविजन सिरभाग ||११२।। जग प्रमाद निद्रावस होय । सोवत है सुधि नाहीं कोय ।। प्रभु धुनिकिरन पयासै जबै । होय सचेत जगै जन तबै ।।११३।।
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