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(भा)
वे आज से तेरह वर्षपूर्व आचार्यवर्य श्रीविजयविज्ञानसूरीश्वरजी महाराज के पवित्र करकमलों द्वारा दीक्षित हुये, और आचार्यवर्य श्रीविजय कस्तूरसूरीश्वरजी महाराज के शिष्य बने ।
आप ने इस असार संसार के स्वरूप का अपनी पत्नी को सांसारिक अवस्था में ही सदुपदेश देकर संयममार्ग का पथिक बनाया । जिनका शुभनाम साध्वी श्रीजयप्रभाश्रीजी है । और आपने मुनिराज ( सम्प्रति पन्यासप्रवर ) श्री शुभङ्कर विजयजी महराज के साथ सं० २००७ का चातुर्मास अपने जन्मस्थल पेटलाद में किया था, उस चातुर्मास की स्थिरता में आपने अपनी लघुभगिनी सविता को भी संयम मार्ग का उपदेश देकर दीक्षित किया, जो साध्वीश्री सत्यप्रभाश्रीजी के शुभनाम से ख्यात हैं । तदुपरांत आपने अपने जीवन का अमूल्य समय पूज्य गुरुदेव की भक्ति एवं सम्यग्ज्ञानोपार्जन में हीं अपूर्व दृढचित्तता के साथ बिताया है । आपने व्याकरण, न्याय, साहित्य तथा जैन दर्शन का गम्भीर अध्ययन किया है । आप के भक्तिभावपूर्णहृदय, तेजस्विता, विचक्षणबुद्धि, लोकप्रियता, व्याख्यान कौशल आदि कई गुणों को देखकर पूज्य गुरुदेवों ने पूना नगर में चातुर्मास के अनन्तर सं. २०१४ के मार्गशीर्ष शुद्ध दशमी रविवार को पञ्चमांग श्री भगवतीसूत्र का योगोद्रहन कराकर गणि पदवी से अलङ्कृत कर जैनशासन को प्रदीप्त करने का शुभ आशीर्वाद प्रदान किया ।
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