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प्रकाशकीय
आज मैं इस ग्रन्थ के प्रकाशन का सुअवसर मिलने के कारण अनुपम आनन्द तथा कृतकृत्यता का अनुभव कर रहा हूं ।
प्रस्तुत ग्रन्थ 'द्वात्रिंशिकाद्वयी' कलिकालसर्वज्ञ भगवान् श्रीहेमचन्द्राचार्य विरचित 'अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका तथा अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका का संग्रह रूप है।
इन दोनों स्तुतियों के उपर संस्कृत में अनेक व्याख्या तथा अवचूरिकाओं के होने का सम्भव है। किन्तु अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका का हिन्दी तथा गुजराती अनुवाद उपलब्ध हैं, संस्कृत व्याख्या उपलब्ध नहीं । अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका के उपर आचार्य श्रीमल्लिषेण सूरीश्वरजी कृत 'स्याद्वादमञ्जरी' नामक विस्तृत तथा व्युत्पन्नमतिभोग्य संस्कृत टीका उपलब्ध है। तथा हिन्दी तथा गुजराती अनुवाद तथा अन्य कई अवचूरिकायें भी उपलब्ध हैं। इन दोनों द्वात्रिंशिकाओं का अध्ययन आज जैन समाज में अत्यन्त आदर के साथ किया जाता है।
प्रस्तुत द्वात्रिंशिकाद्वयी पर 'कीर्तिकला' नामक संस्कृत टीका तथा हिन्दी भाषानुवाद--जिस के प्रकाशन का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है-के रचयिता विद्वद्वर्यमुनिराज श्रीकीर्तिचन्द्रविजयजी गणिवर महाराज हैं, जो सांसारिक सम्बन्ध से मेरे लघु सहोदर हैं।
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