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अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकास्तुतिः
के अनुसार ही कार्य होता है । दूसरे तो स्वयं रागी हैं, तो उनका सिद्धान्त रागरहित कैसे होगा ? । ' इसलिये आप का सिद्धान्त ही विरोधशून्य होने के कारण तथा समदर्शी होने के कारण ग्राह्य है। अपेक्षाभेद से विरोध नहीं रहने के कारण पदार्थ सर्वनयात्मक हैं, यह सिद्धान्त पूर्व में तर्कों द्वारा सिद्ध हो चुका है । इसलिये स्याद्वाद में पक्षप्रतिपक्षभाव, तथा तन्मूलक असहिष्णुता भी नहीं है ।) ॥ ३०॥ .. हे पूज्यतम ! जिनेन्द्र ! (आप के सिद्धान्त के कितने विषय परीक्षासे सिद्ध हो चुके हैं। किन्तु) आप की सम्पूर्ण वाङ्मयसमृद्धि के विवेचन परीक्षण की इच्छा भी नहीं कर सकते हैं । (क्योंकि जो कार्य साध्य होता है, लोग उसकी ही इच्छा भी करते हैं । कोई भी असाध्य कार्य करने की इच्छा नहीं करता । ) यदि वैसी इच्छा करें, तो जांघ के बल से ( पाँव के बल पर ) समुद्र को लाँघने की इच्छा भी कर सकते हैं। तथा चन्द्रकिरण के पीने की इच्छा भी कर सकते हैं (जैसे समुद्र के लांघने तथा चन्द्रकिरण पीने की कोई इच्छा नहीं करता, क्योंकि वह असाध्य है। उसी प्रकार हमलोग भी समुद्र के समान अपार तथा चन्द्रकिरण के समान निर्मल, जगत्प्रकाशक तथा प्रयास करने पर भी दुर्गाह्य ऐसे आप के वाङ्मय के विवेचन की इच्छा नहीं कर सकते । जिस के विषय में इच्छा भी अशक्य है, उसको कर सकने की बात भी कैसे की जा सकती है ? ) ॥ ३१ ॥
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