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________________ कीर्तिकलाख्यो हिन्दीमाषानुवादः १६५ अनन्त ही नहीं कहा जा सकता। इसलिये अनादि अनन्त काल में अनन्त जीवों के मुक्त होने पर भी अनन्त जीव सदा ही बद्ध रहेंगे हीं । तो भवविलोप कैसे होगा ? । तथा मुक्त जीव को भव में पुनरागमन मानने की क्या आवश्यकता ? । इसलिये उपर्युक्त दोष नहीं हो सकता) ॥२९ ।। हे जिनेन्द्र ! जिस प्रकार दूसरे प्रवाद-नित्य अनित्य आदि एकान्तवाद (यथाकथञ्चित् छल आदि का आश्रय करके जिस वाद का समर्थन किया जाय ऐसा वाद-प्रवाद, तथा जिसके समर्थन में सत् तर्क का आश्रय लिया जाता है, उसको वाद कहते हैं। दूसरे एकान्तवाद प्रवाद ही हैं, क्योंकि उनके समर्थन में सत्तों का अभाव है, यह बात पूर्व में की गयी परीक्षा से सिद्ध हो चुकी है ।) परस्पर पक्ष प्रतिपक्षभाव ( एक ही पदार्थ में विरुद्धधर्मों का उपन्यास तथा स्पर्धापूर्वक अपने अपने पक्षों का समर्थन का आग्रह) होने के कारण अत्यन्त असहिष्णु हैं । (एक दूसरे के खण्डन में किञ्चित् भी धैर्य नहीं रखते हैं। किन्तु जिस किसी भी प्रकार से खण्डन में प्रवृत्त रहते हैं। क्योंकि उनको अपने अपने पक्ष में राग है ।) हे जिनेन्द्र ! सर्व (सात) नयों को सामान रूप से स्वीकार करने बाला, किसी भी पक्षे में राग रहित आप का सिद्धान्त स्याद्वाद वैसा (असहिष्णु) नहीं है। (आप स्वयं वीतराग हैं, इसलिये आप का सिद्धान्त भी राग रहित है, क्योंकि कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002680
Book TitleDvantrinshikadwayi Kirtikala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherBhailal Ambalal Shah
Publication Year
Total Pages72
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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