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________________ १६२ अयन्योगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकास्तुतिः पदार्थ सत् हैं ) इस प्रकार पदार्थों का ग्रहण होता है । इस पक्ष में अन्य धर्मों का निषेध नहीं होता हैं, किन्तु विवक्षित धर्म का प्रतिपादन मात्र होता है, इसलिये वस्तु के एक अंश का यथार्थ रूप में ग्राहक होने के कारण यह पक्ष व्यवहार के लिये ग्राह्य है । प्रमाण (सप्तभङ्गात्मक ) वाक्यों से (घटादि पदार्थ कथञ्चित् सत् हैं, इस प्रकार ) पदार्थों का ग्रहण होता है । यहां कथञ्चित् पद लगने से अन्यधर्मों की भी साथ साथ सूचना हो जाती है इसलिये इस वाक्य से यथार्थरूप ( अनन्तधर्मात्मक रूप ) से पदों का प्रतिपादन होता है । जिस वाक्य का अन्य धर्मों के निषेध में तात्पर्य न हो, किन्तु विवक्षित धर्म के प्रतिपादनमात्र में तात्पर्य हो, उसको नयवाक्य कहते हैं । नय सातप्रकार के होते हैं । जैसेनैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द , समभिरूढ, एवंभूत । नैगम नय के अभिप्राय से सामान्य (घटत्व आदि) विशेष ( घट आदि) दोनों भिन्न तथा सत् हैं। संग्रहनय के अभिप्राय से सामान्य ही सत् है, विशेष नहीं । क्यों कि सामान्य से भिन्न विशेष की उपलब्धि नहीं होती है । व्यवहारनय के अभिप्राय से विशेष हीं सत् है, सामान्य नहीं। क्योंकि सामान्य से कोई व्यवहार नहीं होता, तथा विशेष से पृथक् सामान्य उपलब्ध नहीं होता । ऋजुसूत्रनय के अभिप्राय से वर्तमानकालिक वस्तु ही सत् हैं। क्योंकि अतीत अनागत पदार्थ कार्यकरने बाले नहीं हैं। और कार्य के विना किसी भी पदार्थ की सत्ता मानी नहीं जा सकती। शब्दनय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002680
Book TitleDvantrinshikadwayi Kirtikala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherBhailal Ambalal Shah
Publication Year
Total Pages72
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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