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________________ १५८ अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकास्तुतिः न्तवाद को स्वीकार कर मिथ्यात्वग्रस्त होजाते हैं । इसलिये अधो गति को प्राप्त करते हैं। (मुक्ति सम्यग् ज्ञान से ही होती है एकान्तवाद युक्तिविरुद्ध होने के कारण सम्यग् ज्ञान नहीं है विरोध के कारण ही एकान्त का समर्थन किया जाता है । किन वास्तव में विरोध सिद्ध ही नहीं होता। इसलिये एकान्तवाद: कोई तर्क नहीं है, तथा तर्करहित सिद्धान्त मानना हीं मिथ्यात्व है मिथ्यात्व से पतन ही होता है, मुक्ति नहीं । अन्यथा सब जी मुक्त ही हो जायंगे । ) ॥ २४ ॥ हे ज्ञानिश्रेष्ठ ! एक ही घटादि पदार्थ-" कथञ्चित् (पर्यार की अपेक्षा से ) अनित्य, कथञ्चित् (द्रव्य की अपेक्षा से ) नित्य कथञ्चित् ( अनुवृत्तिप्रत्ययविषय होने के कारण ) सामान्यात्मक, कथ ञ्चित् (व्यावृत्तिप्रत्ययविषय होने के कारण ) विशेषात्मक, कथञ्चि ( गुणप्रधान भाव से क्रमशः अनेकधर्मों की विवक्षा करने से वक्तव्य, कथञ्चित् ( एकसाथ प्रधानभाव से अनेक धर्मों की विवक्ष करने से अवक्तव्य, कथञ्चित् ( स्वद्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्ष से )सत् , कथञ्चित् ( परद्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा से ) असा हैं ) इस प्रकार की उक्ति (देशना वाणी ) सर्वप्रकार से पदार के तत्त्वज्ञानरूप अमृत के पान से हुई तृप्ति के सूचक पुनः पुन होने वाले उद्गार ही हैं । (आप को सर्वप्रकार से पदार्थ का तथा ज्ञान है । इसलिये आप की ही ऐसी यथार्थ उक्ति है। पूर्व । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002680
Book TitleDvantrinshikadwayi Kirtikala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherBhailal Ambalal Shah
Publication Year
Total Pages72
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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