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________________ १३६ अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकास्तुतिः पदार्थ को स्यान्नित्य ही कह सकते हैं, 'नित्य ही है। ऐसा नहीं कह सकते)। हे जिनेन्द्र ! उक्तयुक्ति से पदार्थों का समस्वभाव प्रमाणित होने के कारण, आपके अनेकान्तवाद के विरोधियों काआकाशादि नित्य ही हैं, दीप आदि अनित्य ही हैं, इस प्रकार का प्रतिपादन प्रलाप (अनर्थक या युक्ति रहित) हीं है ॥५॥ ___" यह पञ्च महाभूत प्रपञ्च सावयव होनेके कारण कार्य है, (क्यों कि नित्य आकाशादि पदार्थ निरवयव हैं।) कार्य कता के विना नहीं हो सकता, इसलिये जगत्का ईश्वर है । वह एक ही है। (क्यों कि एककार्य के अनेक का मानने से कार्य में एकरूपता तथा नियमितता नहीं रह सकती ।) तथा वह व्यापक और सर्वज्ञ है, (इसलिये वह सर्व देश काल में सब कार्य कर सकता है।) वह स्वतन्त्र है। (इसलिये किसी. की इच्छा के आभाव में कार्य के रुकने की सम्भावना नहीं है ।) तथा वह नित्य है। ( अन्यथा उसका जो जनक होगा, उसका भी कोई जनक होगा, इस प्रकार अनवस्था हो जायगी ।) हे जिनेन्द्र ! कदाग्रह से किये जाने वाले ये सब कुतर्क उनके हैं, जिनका उपदेशक आप नहीं। (आपके उपदेश (सिद्धान्त) को जानने बाले ऐसे कुतर्क नहीं कर सकते। क्यों कि परमाणु आकाश जीव आदि पदार्थों को सभी नित्य मानते हैं। शरीर आदि कार्य का कारण कर्म ही है। ऐसी स्थिति में ईश्वर को का मानने की कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002680
Book TitleDvantrinshikadwayi Kirtikala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherBhailal Ambalal Shah
Publication Year
Total Pages72
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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