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कीर्तिकलाख्यो हिन्दीमाषानुवादः
( क्यों कि दूसरे दर्शन सर्वज्ञमूलक नहीं हैं, इसलिये पदार्थ के एक अंश को ही जानने बाले हैं । ) ॥ २८ ॥
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हे वीर ! श्रद्धा के कारण हीं आपके विषय में हमारा अनुराग नहीं है, तथा केवल द्वेष से हीं दूसरे देवों के विषय में हमारी अरुचि नहीं है । किन्तु साधक तथा बाधक प्रमाणों से विधि पूर्वक आप्तत्व की परीक्षा कर के हीं हमलोग आप जैसे स्वामी का ही आश्रित हुए हैं । ( परीक्षा करने से दूसरे देव आप्त सिद्ध नहीं होते। जो आप्त नहीं हैं, उनका आश्रय विवेकी जन कैसे कर सकते हैं ? । ) ॥ २९ ॥
हे जगदीश ! जो तमोगुणी ( अज्ञानियों) के अगोचर ( परोक्ष) ऐसे आपके स्वरूप को सरलता से प्रकट करती है, ऐसी, चन्द्र के किरणों के समान निर्मल और सांसारिकतापों के हरण करने के कारण शीतल, निर्दोष एवं प्रामाणिक आपकी वाणी का हीं हमलोग पूजन करते हैं, ( आदर करते हैं, या प्रणाम करते हैं । दूसरे देवों की वाणी ऐसी नहीं है, इसलिये विवेकी लोग उसका आदर नहीं कर सकते । ) 11 30 11
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हे भगवन् ! जिस किसी भी समय में जिस किसी भी रूपसे जिस किसी भी नाम से जो कोई भी हों, यदि वह वीतराग हैं। तो आप हीं हो। आपको मेरा नमस्कार हो । ( गुण की पूजा होती है, काल नाम या रूप की नहीं, इसलिये व्यक्तिविशेष
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