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________________ १२८ अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकास्तुतिः हे जिनेन्द्र ! परतीर्थिक लोग अपने गले पर ही कुल्हाडी चलाते हुए कुछ भी प्रलाप करें। (निर्दोष के ऊपर आक्षेप करना अपने गले पर कुल्हाडी चलाने जैसा ही है। क्यों कि अपने गले पर कुल्हाडी चलाने से जैसे अपनी ही मृत्यु होती है, वैसे ही निर्दोष की निन्दा करने से लोग स्वयं ही निन्दित होते हैं।) किन्तु हे वीतराग ! बुद्धिमानों का आपके ऊपर केवल पक्षपात से ही अनुराग नहीं है , (किन्तु आपके विशिष्ट गुणों के कारण ही आपके ऊपर अनुराग है। इसलिये आपके अनुरागियों पर दूसरों का आरोप अकारण है ।) ।२६। हे नाथ ! जो परीक्षक अपने को मध्यस्थ बताकर मणि और काच में समानता की बात करते हैं । वे वास्तव में ईर्ष्यालु के लक्षण को ही प्रकट करते हैं। यह निश्चित है । (ईर्ष्याद्वेष के बिना कोई भी मध्यस्थ परीक्षकव्यक्ति मणि और काच को समान नहीं बता सकता। इसी प्रकार आप जैसे गुणी वीतराग को अन्य रागआदि से युक्त देवों के समान कहने बाले ईष्यालु ही हैं। क्यों कि सराग और वीतराग, मणि और काच के जैसे कभी भी समान नहीं हो सकते ।) ॥ २७ ॥ मैं प्रतिपक्ष परतीर्थिकों के मित्रों तथा समर्थकों के सामने खूब गम्भीरता से यह घोषणा करता हूँ कि, वीतराग से बढकर दूसरे कोई देव नहीं हैं, (क्यों कि दूसरे देव वीतराग नहीं है।) तथा स्याद्वाद के सिवाय दूसरे कोई भी दर्शन प्रामाणिक नहीं हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002680
Book TitleDvantrinshikadwayi Kirtikala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherBhailal Ambalal Shah
Publication Year
Total Pages72
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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