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________________ परिचय | ५९ विश्वास है कि वैदिक धर्मानुयायी जन यह कहनेकी इच्छा नहीं कर सकेंगे कि श्रीमद् राजचंद्रके विचार जैनधर्मकी ओर झुके हुए थे, इस कारण उन्होंने अन्य सम्प्रदायोंके विचारोंका अवलोकन नहीं किया था । अब कुछ श्रीमद् राजचंद्रकी अध्यात्म दशाके सम्बन्धमें विचार प्रकट करना आवश्यक जान पड़ता है । यह ऊपर बतलाया जा चुका है कि श्रीमद राजचंद्रका अभिप्राय यह था कि जिन भगवानने जैसा आत्म-स्वरूप कहा है वैसा ही उसे होना चाहिए । इस विषयका एक लेख पहले उद्धृत किया जा चुका है कि वेदान्त, जैन और सांख्य आदि दर्शनों में आत्माका यथार्थ स्वरूप किसने प्ररूपण किया है । उस लेखकी 'विचार -पृथक्करण-शास्त्र' द्वारा जाँच की जाय तो इस बातका निर्णय हो सकता है। कि राजचन्द्रको आत्मानुभव हुआ था या नहीं; और हुआ था तो वह किस सीमा तक हुआ था । उस लेखमें उन्होंने लिखा है कि "वेदान्त जिस प्रकार आत्म-स्वरूप बतलाता है उससे वह सर्वथा अविरोधी नहीं है; क्योंकि वह जैसा बतलाता है वैसा ही आत्म-स्वरूप नहीं है । उसमें कोई बड़ा भारी भेद दिखाई पड़ता है; और इसी प्रकार सांख्य आदि दर्शनों में भी भेद देखने में आता है और वैसा ही वेदनमें आता है ।" जिस पत्र परसे यह अंश उद्धृत किया गया है वह साराका सारा पत्र पहले उद्धृत किया जा चुका है । विचार - पृथक्करण-शास्त्र द्वारा उनके विचारोंका खूब परिशीलन कर देखा जाय तो जाना जा सकता है कि श्रीमद् राजचंद्रके हृदयके किसी भी कोने में वेदान्त आदि दर्शनोंके प्रति थोड़े भी न्यून भाव न थे, इसी प्रकार जैनदर्शनके प्रति जरा भी पक्षपात न था । इस कहनेका अभिप्राय यह है कि इन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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