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श्रीमद् राजचन्द्र
तब देखना यह चाहिए कि इसका परिणाम क्या हुआ । यह बतलाया जा चुका है कि श्रीमद राजचंद्रकी सत्रह और उन्नीस वर्षकी उम्र में अधिक प्रसिद्धि हुई और वे एक असाधारण शक्तिशाली पुरुष समझे गये । श्रीमद् राजचंद्रने संस्कृत तथा प्राकृत भाषा नहीं पढ़ी थी; परन्तु जब उन्होंने इन भाषाओंकी पुस्तकोंको देखना आरंभ किया तब सहज ही उन्हें अपनी असाधारण शक्तिकी सहायता से इन दोनों भाषाओंका साधारण अच्छा ज्ञान हो गया । इससे फिर उन्होंने जिन दर्शनोंका अध्ययन किया उनके तत्त्वोंको सहज ही समझ लिया; और अपनी असाधारण विचार - शक्तिके द्वारा उनके सम्बन्ध में अपने विचारोंको स्थिर किया । किसी प्रकारकी दूसरे की सहायता या उन्नत विचार - वातावरण के समागम के बिना इस प्रकारके तत्त्वज्ञान- सम्बन्धी विचारोंको लिखनेकी मात्र तीन वर्षों में ऐसी शक्तिका प्राप्त होना क्या इस जन्म में प्राप्त की हुई शक्तिका परिणाम कहा जा सकता है ? पश्चिमकी दृष्टिसे ऐसे पुरुषोंको नूतन शक्त्युत्पादक ( Genius ) कहना चाहिए और पूर्वकी दृष्टिसे कहना चाहिए कि उनकी वह शक्ति पूर्व - जन्मके संस्कारका फल थी । यह नहीं था कि राजचन्द्रमें यह शक्ति तेरह वर्ष की उम्र में देख पड़ी हो; किन्तु बालपन में ही इसके आसार उनमें देख पड़ते थे । जब श्रीमद् राजचंद्र ग्यारह वर्ष के थे तब मोरवीके वर्तमान माननीय महाराज ठाकुर साहब एक बार ववाणिया आये और पाठशाला के विद्यार्थियोंकी उनने परीक्षा ली । उस समय पाठशालामें एक छोटीसी छात्र - वृत्ति नियत की जानेवाली थी और उसके लिए अध्यापकने एक लड़के के लिए शिफारस की थी जो कि श्रीमद् राजचंद्रके साथ एक ही श्रेणीमें पढ़ता था । परन्तु परीक्षा लिये बाद माननीय
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