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परिचय ।
"एक छोटेसे प्राणीसे लेकर मस्त हाथी-पर्यन्त सब प्राणियों-मनुष्य, देव-दानव आदि-की स्वाभाविक इच्छा सुख और आनन्दके प्राप्त करनेकी दिखाई पड़ती है। और इसी कारण सब प्राणी सुखके उपायोंमें गुँथे रहते हैं। परन्तु विवेक-बुद्धिके बिना वे उल्टे भ्रममें पड़ जाते हैं। वे बतलाते हैं कि संसारमें अनेक प्रकारके सुख हैं। परन्तु गहरी दृष्टिसे देखने पर जान पड़ता है कि उनकी यह कल्पना मिथ्या है। इस कल्पनाको जिन्होंने मिथ्या समझा है ऐसे लोग बहुत ही विरले हैं। उनका कहना है कि विवेकके प्रकाश द्वारा अद्भुत और अन्य सुखोंको प्राप्त करो, कि जिनमें संसारके सुखका सम्बन्ध न हो । कारण जिन सुखोंमें भय हैं, वे सुख नहीं हैं। किन्तु दुःख हैं । जिस वस्तुके प्राप्त करनेमें संताप होता है,
और जिसके भोगनेमें उससे भी अधिक संताप है तथा इसी प्रकार जिसके परिणाममें महा संताप, अनंत शोक और अनन्त भय है उस वस्तुका सुख नाम मात्रका सुख है अथवा यों कहना चाहिए कि सुख है ही नहीं । इसी कारण विवेकी जन संसारके सुखोंमें अनुरक्त नहीं होते।"
इस बातके लिए खास अनुरोध है कि पाठक 'भावनाबोध'का आदिसे अन्त-पर्यन्त एक बार अवश्य अवलोकन कर उसके लेखककी भाव. नाओं पर विचार करें। 'मोक्षमाला'को श्रीमद् राजचंद्रने सतरह वर्षकी उम्रमें लिखा था। इसका जो 'बालाबोध-मोक्षमाला' नामसे पहला भाग प्रकाशित किया गया है उस परसे जान पड़ता है कि राजचंद्रकी इच्छा इसे तीन भागोंमें लिखनेकी थी। उन्होंने इसकी प्रस्तावनामें लिखा है कि "यह योजना बालकोंको ज्ञान करानेके लिए है। इसके 'विवेचनबोध' और 'प्रज्ञाबोध' भाग जुदे हैं। जिन्होंने 'बालबोध-मोक्षमाला' को
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