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श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीत- .
चारित्रमोहनीय उसे कहते हैं जो परमार्थको परमार्थ-रूप जान कर आत्मस्वभावमें स्थिरता की जाती है उस स्थिरताके रोकनेवाली, पूर्वसंस्कार-रूप कषायें तथा नो-कषायें हैं । आत्म-ज्ञान दर्शनमोहनीयका और वीतरागता चारित्रमोहनीयका नाश करती है। ये दोनों उनके नाशके निश्चित उपाय हैं। कारण मिथ्याज्ञान-रूप दर्शनमोहनीयका शत्रु सम्यग्ज्ञान है और रागादिक परिणाम-रूप चारित्रमोहनीयका शत्रु वीतराग-भाव है ।.मतलब यह कि प्रकाशसे जिस प्रकार अन्धकार नष्ट हो जाता है-वह उसके नाशका निश्चित उपाय है-उसी प्रकार दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय-रूपी अन्धकारके नाश करनेके लिए सम्यग्ज्ञान और वीतरागता प्रकाशके जैसे हैं । इसी लिए इन्हें दोनों मोहनीय कर्मोंके नाशके निश्चित उपाय कहा है। कर्मबंध क्रोधादिथी, हणे क्षमादिक तेह । प्रत्यक्ष अनुभव सर्वने, एमां शो संदेह ॥ १०४ ॥
क्रोधादियोगतः कर्मबन्धः शान्त्यादिघातकः ।
अत्रानुभूतिः सर्वेषां तत्र का संशयालुता ? ॥ १०४ ॥ ___ अर्थात्-क्रोधादि-रूप भावोंके होनेसे कर्म-बन्ध होता है और क्षमादिरूप भावोंसे क्रोधादिका नाश होता है । अर्थात् क्षमासे क्रोध, सरलतासे माया और सन्तोषसे लोभ रोका जा सकता है। इसी प्रकार रति, अरति आदि दोष अपने अपने प्रतिपक्षी गुणोंसे रोके जा सकते हैं । इसे ही कर्मबन्ध-निरोध कहते हैं। और यही निरोध कोंकी निवृत्ति है। इस बातक सबको प्रत्यक्ष अनुभव है अथवा चाहें तो सब प्रत्यक्ष अनुभव कर भी सकते
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