________________
श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीतही नहीं। और यदि ऐसा हो तो फिर घट-पट आदि वस्तुओंमें भी कोधादि भाव तथा कर्मोंका ग्रहण करना होना चाहिए । परन्तु ऐसा अनुभव तो आज तक किसीको भी नहीं हुआ। इससे यह अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है कि चैतन्य जीव ही कर्मोंको ग्रहण करता है; और इसी लिए उसे कर्मोंका कर्ता कहा जाता है अर्थात् इस प्रकार जीव कर्मोंका कर्त्ता सिद्ध होता है । तुमने जो यह पूछा कि कर्मोंका कर्त्ता कर्मको कहना चाहिए या नहीं सो इसका भी समाधान इस उत्तरसे हो जायगा कि जड़ कर्मों में प्रेरणा-रूप धर्मके न होनेसे उनमें चैतन्यकी भाँति कर्मों के ग्रहण करनेकी सामर्थ्य नहीं है । और कर्मोंका कर्तापना जीवमें इस लिए है कि उसमें प्रेरणा-शक्ति है।
जो चेतन करतुं नथी, थतां नथी तो कर्म । तेथी सहज खभाव नहीं, तेम ज नहीं जीवधर्म ७५
यदि जीवक्रिया न स्यात् संग्रहो नैव कर्मणः।
अतो न सहजो भावो नैव वा जीवधर्मता ॥ ७५ ॥ अर्थात्-आत्मा जो कर्म नहीं करता तो वे होते नहीं, इस लिए यह कहना ठीक नहीं है कि कर्म अनायास-स्वभाव-से ही होते रहते हैं। और न यह कहना ही ठीक है कि आत्मा कर्म-कर्ता है इस लिए वह उसका स्वभाव है; क्योंकि स्वभावका कभी नाश नहीं होता । और जो यह कहा गया कि आत्मा कर्म न करता तो कर्म होते नहीं, इससे यह मी सिद्ध होता है कि कर्म-भाव आत्मासे दूर भी हो सकते हैं, इस लिए कि वह उसका स्वाभाविक धर्म नहीं है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org