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________________ आत्मसिद्धि। ४५ __ अर्थात्-इन बातोंसे जीव किसी प्रकार कर्मोंका कर्ता नहीं हो सकता; और न तब मोक्ष-प्राप्तिके लिए प्रयत्न करना ही सकारणक जान पड़ता है। क्योंकि जीवमें कर्म-कर्तृत्त्व नहीं बनता । और जो मान लिया जाय तो फिर वह उसका स्वभाव ठहर जाता है और स्वभाव मान लेनेसे जीवसे फिर कभी छूट न सकेगा। सुगुरुका उत्तर । सुगुरु इस बातको बतलाते हैं कि 'आत्मा कर्मोंका कर्ता' किस प्रकार है होय न चेनतप्रेरणा, कोण आहे तो कर्म ? । जडखभाव नहीं प्रेरणा, जुओ विचारी धर्म ॥७४ चेतनप्रेरणा न स्यादादद्यात् कर्म कः खलु ? । प्रेरणा जडजा नाऽस्ति वस्तुधर्मो विचार्यताम्।।७४॥ अर्थात्-चैतन्य आत्माकी प्रेरणा-रूप प्रवृत्ति न हो तो कर्मोंको ग्रहण कौन करे; क्योंकि जड़का खभाव प्रेरणा करना नहीं है। यह बात जड़ और चैतन्यके धर्मोंका विचार करने पर स्पष्ट ध्यानमें आ सकती है। समर्थन-जो चैतन्यकी प्रेरणा न हो तो कमाको ग्रहण करेगा कौन ? क्योंकि प्रेरणा करके ग्रहण कराने रूप खभाव जड़ वस्तुका है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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