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श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीत
जीवहीको होता है, क्योंकि वहाँ दूसरा कोई पदार्थ नहीं है और सुखका भास होना अत्यन्त स्पष्ट है। यह 'सुखाभास' नामका लक्षण जीवको छोड़ कर और कहीं नहीं रहता । - जिसमें इस प्रकारका ज्ञान-स्व-संवेदन ज्ञान-अनुभव-ज्ञान-होता हो कि यह सोंधा है, यह मीठा है, यह खट्टा है, यह खारा है, मैं इस स्थितिमें हूँ, मुझे जाड़ा लगता है, गरमी पड़ती है, मैं दुखी हूँ, दुःखका अनुभव करता हूँ वह जीव है। अथवा जिसके ये लक्षण हों वह जीव है। इस प्रकार तीर्थकरादिकोंका अनुभव है। __ आत्मा स्पष्ट प्रकाशमान है। इसके प्रकाशके बिना अनन्त तेजस्वी दीपक, मणि, चंद्रमा और सूर्यादिक भी अपना प्रकाश नहीं कर सकते अर्थात् ये सब आत्म-प्रकाशकी सहायताके बिना न तो अपना स्वयं ज्ञान करा सकते हैं और न कोई इन्हें जान ही पाता है । जिस पदार्थमें रहनेवाले चैतन्यकी सहायतासे उक्त पदार्थ जाने जाते हैं-वे प्रकाशित होते हैं-स्पष्ट प्रतिभासित होते हैं-वह पदार्थ कोई हो, वही 'जीव' है। अर्थात् वह जो स्पष्ट, अचल और निराबाध प्रकाशमान चेतना है वह जीवकी है और जीवके प्रति स्थिर उपयोग लगा कर देखनेसे स्पष्ट दिखाई पड़ती है।
ऊपर जो लक्षण कहे गये हैं उन पर बार बार विचार करनेसे जीव निराबाध जाना जाता है। इन लक्षणोंको जान कर ही तीर्थकारादिकने जीवको जाना है और इसी लिए उन्होंने जीवके जाननेके ये लक्षण
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