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अस्तित्व प्रमाण माना जाता है उसी प्रकार प्रत्यक्ष दिखाई पड़नेवाले स्वपर - प्रकाशक चैतन्यगुणके कारण आत्माका भी अस्तित्व प्रमाणभूत है ।
दूसरे बतलाया है कि 'आत्मा नित्य है ' । देखो; घटपटादिक पदार्थ कुछ ही काल तक स्थिर रहनेवाले हैं और आत्मा सदा - तीनों काल - स्थिर रहनेवाला है । घटपटादि संयोग - जन्य पदार्थ हैं और आत्मा स्वभावसिद्ध है। क्योंकि ऐसे कोई संयोग अनुभवमें नहीं आते जिनसे आत्माकी उत्पत्तिकी संभावना की जावे। किसी भी संयोगी द्रव्यसे चैतन्यसत्ताका उत्पन्न होना असंभव है, और इसी लिए वह अजन्मा - स्वभावसिद्ध है । और इसी असंयोगीपनेके कारण वह अविनाशी है; क्योंकि जो संयोग - जन्य नहीं होता उसका कभी नाश भी नहीं होता ।
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तीसरी बात बतलाई है कि 'आत्मा कर्ता है' । संसार में जितने पढ़ार्थ हैं उन सबमें अर्थ- क्रियाकारित्व देखा जाता है अर्थात् उनमें कुछ-नकुछ परिणाम, क्रिया होती हुई दिखाई पड़ती है । आत्मा भी पदार्थ है, इस लिए मानना पड़ेगा कि वह भी अर्थ - क्रियाकारित्व युक्त है । और इस अर्थ क्रियाकारित्वके कारण ही उसे कर्त्ता कहा जाता है। श्री जिन भगवान्ने आत्माका कर्तृत्व तीन प्रकार बतलाया है । परमार्थ- दृष्टि तो वह अपने स्वभावका कर्त्ता है, इस लिए कि उसका अपने स्वभावमें ही परिणमन होता है; दूसरे अनुपचरित ( अनुभवमें आने योग्य विशेष सम्बन्ध-रूप ) व्यवहारनयसे कर्मोंका कर्त्ता है और उपचारसे गृह, नगर आदिका कर्त्ता है ।
चौथे बतलाया है कि 'आत्मा भोक्ता है' । संसारमें जितनी क्रियायें होती हैं वे निष्फल- निरर्थक नहीं होतीं। यह प्रत्यक्ष अनुभवमें
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