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________________ भूमिका। [ लेखक, स्व० श्रीमद् राजचन्द्र । ] दुःख सब जीवोंको अप्रिय लगता है, तो भी उसका अनुभव उन्हें करना पड़ता है । इस लिए दुःखका कोई कारण अवश्य होना चाहिए । जान पड़ता है इस भरत-भूमिसे ही प्रधानतया विचारशीलोंके विचारोंका विकाश हुआ है और उसीके द्वारा फिर क्रमसे आत्मा, कर्म, परलोक और मोक्ष आदि भावोंका स्वरूप सिद्ध हुआ है। __वर्तमानमें जब अपना अस्तित्व देखा जाता है तब भूत-कालमें भी उसे होना चाहिए; और इसी प्रकार भविष्यमें भी उसका होना आवश्यक है। मुमुक्षुओंको इसी प्रकारके विचारोंका आश्रय लेना कर्तव्य है। विचार करने पर जान पड़ता है कि किसी भी वस्तुका भूत और भविष्यमें अस्तित्व न हो तो वर्तमानमें उसका अस्तित्व ही नहीं हो सकता। जिन प्रभुका सिद्धान्त है कि वस्तुका सर्वथा उत्पाद या विनाश नहीं होता; उसका अस्तित्व सदा ही बना रहता है; मात्र रूपान्तर होता रहता है-उसकी अवस्थायें बदलती रहती हैं। उसके वस्तुत्व गुणका कभी नाश नहीं होता। ___ इस सिद्धान्तके अनुसार शुद्धात्म-स्वरूपको प्राप्त हुए ज्ञानीजनोंने नीचे लिखी छः बातोंको सम्यग्दर्शनका सर्वोत्कृष्ट साधन बतलाया है। प्रथम ही बतलाया है कि 'आत्मा है' अर्थात् घट-पटादिकी भाँति आत्मा मी है। जिस प्रकार किसी खास गुणके कारण घट-पटादिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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